साहित्य का पर्यावरण यानी भाषा छुट्टी पर

हिन्दी भाषा-साहित्य की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है . तमाम तरह की हानिकारक विकिरणें समूचे साहित्य के पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही हैं . कहीं-कहीं तो स्थिति तेजाबी वर्षा की है . ऐसा नहीं है कि पहले यह कोई सदाबहार वनों वाला इलाका था और अब अचानक ही यह झुलसते हुए रेगिस्तान में तब्दील हो गया है . शर्वरी पहले भी हिंस्र पशुओं से भरी थी . पर तब इतनी महत्वाकांक्षा न थी . शिकार भूख लगने पर ही किया जाता था.

दार्शनिक विट्गेंस्टाइन कहते हैं, “दार्शनिक समस्याएं तब खड़ी होती हैं जब भाषा छुट्टी पर चली जाती है.” यानी भाषा के बेढंगेपन का विचार के बेढंगेपन से गहरा संबंध है. कवि लीलाधर जगूड़ी भी अपनी एक कविता में यही पूछते दिखते हैं कि ’पहले भाषा बिगड़ती है या विचार’ . एक काल्पनिक प्रश्न के उत्तर में कन्फ़्यूसियस अपनी प्राथमिकता बताते हुए कहते हैं “यदि भाषा सही नहीं होगी तो जो कहा गया है उसका अभिप्राय भी वही नहीं होगा; यदि जो कहा गया है उसका अभिप्राय वह नहीं है,तो जो किया जाना है,अनकिया रह जाता है; यदि यह अनकिया रह जाएगा तो नैतिकता और कला में बिगाड़ आएगा ; यदि न्याय पथभ्रष्ट होगा तो लोग असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े दिखाई देंगे. अतः जो कहा गया है उसमें कोई स्वेच्छाचारिता नहीं होनी चाहिए. यह सबसे महत्वपूर्ण बात है.”

हिंदी के एक महत्वपूर्ण कवि-समीक्षक-अनुवादक-सम्पादक नैतिकता,प्रामाणिकता और जवाबदेही के अत्यंत उत्तुंग शिखर पर बैठ पर ’प्रमाद’ दूर करने वाले अपने उच्च विचार अत्यंत आक्रामक शैली में व्यक्त करने के आदी हैं. वे अक्सर ये सात्विक विचार निहायत तामसिक भाषा में अभिव्यक्त करते हैं. पाठकों ने भी थक-हार कर अन्य गुणवत्ताओं के चलते उन्हें उनकी इस लाइलाज शैली के लिए एक रियायत-सी दे रखी है. इधर एक साहित्यिक विवाद में उन्होंने लेखक-लेखिकाओं को सोनिया और प्रियंका गांधी से मिलने का अत्यंत फूहड किंतु मौलिक सुझाव देकर अपने को हास्यास्पद बना लिया है.

सबकी खबर लेने वाला एक अखबार भी अपने वजनदार सम्पादक की विशेष रुचि के चलते अपने सम्पादकीय में एक साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक तथा एक उपन्यासकार-कुलपति के लिए अपशब्द का प्रयोग कर अपने को धन्य कर चुका है. एक महत्वपूर्ण पत्रिका के विवादप्रेमी किंतु खिलंदड़े संपादक भी बहुधा ’सुपर’ साहित्यिक सामग्री को बेहद छिछले और बाज़ारू शीर्षकों के अन्तर्गत देने में शौर्य-सुख का अनुभव करते हैं. और बावजूद इसके, हिंदी के सभी जाने-माने साहित्यकार (लेखिकाओं सहित) न केवल उन्हें अपना पूर्ण समर्थन देते-जताते आए हैं,बल्कि उनमें से अधिकांश उनके ‘सुपर बेवफाई’ अभियान में शरीक भी रहे हैं. कुछ लेखिकाओं के लिए प्रयुक्त अपशब्द का प्रतिकार उतने ही उत्तेजक अपशब्द से करने वाली एक वरिष्ठ लेखिका भी हाल तक इस अभियान में शामिल थीं.

इन सब सुर्खियों की तह में है एक सुपरिचित उपन्यासकार का वक्तव्य . अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कुछ लेखिकाओं पर अश्लीलता परोसने का आरोप लगाते हुए शुचितावादियों को तो प्रसन्न किया, पर बात को धारदार बनाने के लिए एक अपशब्द का प्रयोग कर लेखिकाओं और महिला संगठनों को नाराज कर दिया . यह अलग बात है कि कुछ सूत्र इसे साक्षात्कारकर्ता की कारीगरी अथवा संपादक की असावधानी का परिणाम बता रहे हैं.

समकालीन स्त्री-लेखन में अश्लीलता के सन्दर्भ में अमेरिकी पत्रकार एरियल लेवी (Ariel Levy) की 2006 में प्रकाशित पुस्तक ‘फीमेल शॉविनिस्ट पिग्स : वीमेन एण्ड द राइज़ ऑव रांच कल्चर’ का हवाला देना अनुचित न होगा . एरियल लेवी अपनी इस पुस्तक में लिखती हैं कि इधर स्त्रियाँ अपनी यौनिकता को एक शक्तिशाली हथियार के रूप में देखने लगीं हैं. लेखिका इस बात पर चिंता व्यक्त करती है कि स्त्रियां दूसरी औरतों को और स्वयं अपने को ‘सेक्सुअल ऑब्जेक्ट’ में बदल रही हैं. लेवी इसके लिए अमेरिकी संस्कृति के प्रभाव को उत्तरदायी ठहराती हैं. उनके अनुसार त्रासदी यह है कि स्त्रियां इसे स्त्री-मुक्ति का आयाम मानते हुए इसे स्त्री का सशक्तीकरण समझने पर आमादा हैं .

इसमें भला क्या दोराय हो सकती है कि अपशब्द के प्रयोग से बचा जाना चाहिए . क्रोध में कही गई बात अथवा किसी ’स्लिप ऑव टंग’ का भला क्या बचाव हो सकता है . बिलाशर्त विनम्र माफ़ी और चेतावनीपूर्ण क्षमादान के अलावा साहित्य में उपचार का और कोई उपयुक्त रास्ता भी क्या हो सकता है . ऐसे में पुनः विट्गेंस्टाइन की शरण में जाते हुए गलतियों का अधिकार रखने वाले मनुष्य के रूप में बस इतना भर स्वीकारने का मन करता है कि आदमी चूंकि ’चालाकी की बंजर ऊंचाई’ पर हमेशा टंगा-टिका नहीं रह सकता, इसलिए वह ’बेवकूफ़ियों की हरी-भरी घाटियों’ में विचरने उतर आता है (Never stay up on the barren heights of cleverness, but come down into the green valleys of silliness. — Ludwig Wittgenstein ) .

हिंदी समाज सामान्यतः और हिंदी के अकादमिक विभाग विशेषरूप से, पिटी-पिटाई बातों और वरिष्ठों के मुंह से सुने-सुनाए सूत्र-वाक्यों की जुगाली और उनके आधे-अधूरे प्रसरण के रचनाहीन अड्डे हैं . यहां कोई भी नया विचार, नई उद्भावना नवीन भंगिमा में कहना आपको भारी पड़ सकता है. यहां कॉपी-पेस्ट के कमाल से रचे(?) लद्दड़ शोध-प्रबंध ज्यादा मुफ़ीद उपक्रम हैं बजाय किसी उत्प्रेरक-उत्तेजक-सर्जनात्मक बहस-मुबाहिसे के. ऐसे में हम अगर कहीं जाति-धर्म-क्षेत्र-लिंग के आधार पर बंटे समाज का हिस्सा हों तो मन की बात कहने पर जोखिम और बढ़ जाता है. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह होती है कि आपके संगी-सहयोगी अपने पूर्वग्रहों और रणनीतिक दबावों के चलते तथा आपके विरोधी हिसाब-किताब चुकता करने का पहला मौका पाते ही उस वक्तव्य के प्रकाश में आपके जीवन का कुपाठ शुरू कर देते हैं. विमर्श में निन्दा के लायक कुछ होता हो तो होता हो, आपराधिक जैसा कुछ नहीं होता . गंगा नहा कर आने वाली ’कुलबोरिन’ को लक्षित कर व्यंग्य-कटाक्ष करने वाले कबीर या नारी स्वभाव के अवगुण गिनाते तुलसी उस मध्य युग में तो बच गये पर आज के असहिष्णु ,विभाजित और भ्रष्ट भारतीय समाज में सही-सलामत नहीं रह पाते .

संज्ञान में लेने लायक तथ्य यह भी है कि जिस लेखक के एक शब्द को लेकर इतना बवाल है उसी के ताजातरीन उपन्यास में स्त्री भूत को भूतनी या चुड़ैल कहने की बजाय भूत ही संबोधित करते हुए लेखक अपनी मनःस्थिति कुछ तरह बयान करता है : “मैंने बड़ी कोशिशें की पर मुझे भूत का कोई सम्मानजनक स्त्रीलिंग नहीं मिला.” इस आत्मस्वीकारोक्ति से स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता झलकती है या असंवेदनशीलता ? संदर्भित उपन्यास का कथा-नायक एक स्त्री को रुसवाई से बचाने के लिए बेहिचक मौत की सजा स्वीकार कर लेता है. ऐसे में एक शब्द के आधार पर किसी के भी बारे में किसी तुरत-फुरत नतीजे पर पहुँचना अहमकाना साबित हो सकता है. साहित्य में चीज़ें इतनी स्याह-सफ़ेद नहीं होतीं कि तुरत कोई फैसला सुनाया जा सके .

इस प्रकरण में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों और पत्रकारों से समर्थन जुटाने के उत्साह में कुछ युवा लेखक-ब्लॉगर उन भिखारियों को भी मात दे रहे हैं जो अपने विकल अंग दिखा कर जगह-जगह भीख मांगते दिखाई देते हैं. दरअसल जिसे वे सहानुभूति समझ रहे हैं वह जुगुप्सा है, जिसे पढ पाने का सामर्थ्य अभी उनमें नहीं है.यह सामर्थ्य-शक्ति तभी आ सकती है जब निजी हिसाब-किताब और महत्वाकांक्षाओं को परे रख, इस बात पर विचार किया जाए कि क्या भारत के किसी अन्य भाषा-साहित्य में हुए अन्दरूनी साहित्यिक विवाद में हिंदी लेखकों से हस्तक्षेप की गुजारिश का कोई उदाहरण हमारे सामने है ? रामबिलास शर्मा जैसे अग्रणी साहित्यकारों की मृत्यु का नोटिस तक न लेने वाले अंग्रेज़ी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इस विवाद में ज़रूरत से ज्यादा रुचि लेना और उसका अचानक इस दिशा में ‘प्रोएक्टिव’ होना आश्चर्यचकित तो करता ही है, संदेह भी जगाता है .

किसी को हटाने-बिठाने और उखाड़ने-स्थापित करने के व्यवसाय/व्यसन में पूर्णकालिक तौर पर संलग्न महाजन भले ही इस तथ्य से मुंह फेर लें पर सच तो यह है कि आम हिंदीभाषी को इन दुरभिसंधियों से कोई लेना देना नहीं है. हिंदी समाज में साक्षरता और शिक्षा के स्तर तथा साहित्य के प्रति सामान्य उदासीनता को देखते हुए कुल मिला कर यह छायायुद्ध अब एक ऐसे घृणित प्रकरण में तब्दील हो गया है जो भारतेन्दु के सपने और हिंदी जाति के एक नव-स्थापित अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय को उसके शैशव काल में ही नष्ट कर देने की स्थिति निर्मित करने का दोषी है. श्लेष का प्रभावी प्रयोग करते हुए भारतेन्दु ने हिंदी जाति के दो फल ‘फूट’ और ‘बैर’ गिनाए थे. नियति का व्यंग्य यह है कि उनका सुंदर सपना भी इन्हीं आत्मघाती फलों की भेंट चढने जा रहा है.

सदाचार को तो हम पहले ही मार चुके हैं, यह भाषा-साहित्य से सामान्य शिष्टाचार की विदाई का बुरा वक्त है .

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4 Responses to “साहित्य का पर्यावरण यानी भाषा छुट्टी पर”

  1. vijay sharma Says:

    जिस शिष्टाचार,समझदारी की बात आपने की है,वह हमारे समाज को कम नसीब है। जिस सामाजिक स्तर पर ऐसा दिमाग बनता है,जिस पारिवारिकता से ऐसा मन बनता है,वह यहां नहीं बन पाया.(मेरा भी नहीं)। ये मानना कि आर्थिक स्थिति इसका बडा कारण है ,शायद ठीक नहीं होगा ।मामला पैसे का कम और उस चित्त का ज्यादा है,जिसे स्कूल-कालेज से लेकर कर्मसंस्थानों तक में बेलगाम बनाया जाता है। गरीबी इंसानियत को खा जाती है,इस पर कोई चाहे तो एतराज कर सकता है ,लेकिन गरीबी सामान्यतः ‘ह्यूमन डिग्निटी’ को नष्ट करती है –जीवन में । साहित्य का सच\आदर्श इससे अलग है। दूसरे तरफ इस डिग्निटी को हासिल करने के चक्कर में जो कुछ करना पडता है, उससे एक मानसिक ग्लानि पैदा होती है। गरीब समाज में अमीरी भी पापबोध से नत्थी रहती है। इससे एक प्रतियोगितामूलक समाज बनता है, जो समय आने पर प्रतिद्वंदी, फिर प्रतिस्पर्धी और दुश्मनी से चालित होता है। इसके हमारे समय में भिन्न-भिन्न नाम हैं– मार्क्सवाद,भाषावाद ,जिलावाद,प्रांतवाद ,सवर्णवाद,दलितवाद…..ज्यों ही आप एक हिस्से को संगठित करते हैं,तुरंत उसके खिलाफ एक गुट को जन्म देते हैं… अनजाने । दरअसल इन दिनों हम एक गुट को संगठित भी नहीं करते,सिर्फ एक गुट का विरोध करते हैं,उसके खिलाफ घृणा फैलाते हैं-जायज,नाजायज; इस उम्मीद में कि बहुतों का समर्थन फोकट में मिल जायेगा, सामयिक मिल भी जाता है । लेकिन ‘सेल डिविजन’ की तर्ज पर यह जल्द ही विखंडित होने लगता है,बात हमारे हाथ से निकल जाती है. शायद इसीलिये ये मुल्क बचा हुआ भी है । ऐसी घृणा-पाप-ग्लानिबोध को ढोता समाज ‘नॉरमल’ व्यवहार कैसे कर सकता है?

  2. dr.anurag Says:

    सच कहा हिंदी सहित्य के प्रति उदासीनता की एक निरंतर प्रक्रिया को तोड़ने के लिए..ओर खालिस पाठको के बीच विश्वास बनाये रखने की जो अलिखित जिम्मेवारी पत्रिकायो ओर पढ़े-लिखे पत्रकारों (मैंने विशेष तौर से पढ़े लिखे शब्द का इस्तेमाल किया है) की है….वे इससे जाने अनजाने हटते जा रहे है …ओर आने वाली पीढ़ी के भीतर एक दोहराव भरा शून्य भी रोपते जा रहे है

  3. राजकिशोर Says:

    बहुत सुंदर पालीवाल जी। बधाई।

  4. रंजना सिंह Says:

    बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण लगता है यह…
    सचमुच इस प्रकार की प्रवृत्ति हिन्दी का पतन ही करवायेगी..

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