समाजवादी चिंतक किशन पटनायक को श्रद्धांजलि के साथ राजेंद्र राजन की एक कविता

सितम्बर 27, 2012

तुम थे हमारे समय के राडार

तुम थे हमारे ही तेजस रूप
हमारी चेतना की लौ
हमारी बेचैनियों की आंख
हमारा सधा हुआ स्वर
हमारा अगला कदम।

जब राजनीति व्यापार में बदल रही थी
और सब अपनी अपनी कीमत लगाने में लगे थे
तुम ढूंढ़ते रहे
राख में दबी हुई चिनगारियां
तिनका तिनका जुटाते रहे
विकल्प का र्इंधन
यह अकेलापन ही था
तुम्हारा अनूठापन।

तुममे था धारा के विपरीत चलने का साहस
नक्कारखाने में बोलते रहने का धीरज
जब सब चुप थे
ज्ञानी चुप थे पंडित चुप थे
समाज के सेवक चुप थे
जनता के नुमाइंदे चुप थे
तुम उठाते रहे सबसे जरूरी सवाल
क्योंकि तुम भूल नहीं सके
जनसाधारण का दैन्य
कालाहांडी का अकाल।

तुम थे हमारे समय के राडार
बताते रहे किधर से आ रहे हैं हमलावर
कहां जुटे हैं सेंधमार
कहां हो रहे हैं खेत खलिहानों
जंगलों खदानों के सौदे
कहां बन रहे हैं
तुम्हारे अधिकार छीनने के मसौदे
किन शब्दों की आड़ में छिपे हैं षड्यंत्र
किधर से आ रही हैं घायल आवाजें
कहां घिरा है जनतंत्र
कहां है गरीबों की लक्ष्मी कैद
देखो ये रहे गुलाम दिमागों के छेद।

सब कुछ विदा नहीं होता
बहुत कुछ रह जाता है
जैसे संघर्ष में तपा हुआ विचार
दिख जाती है एक उंगली
अन्याय की जड़ों की तरफ इशारा करती
बार बार चली आती है
हमें पुकारती हुई एक पुकार
कि विकल्पहीन नहीं है दुनिया
पर गढ़ने होंगे क्रांति के नए औजार
जाना होगा पुरानी परिभाषाओं के पार।

— राजेंद्र राजन

(सामयिक वार्ता,सितंबर 2012 से साभार)

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साहित्य का पर्यावरण यानी भाषा छुट्टी पर

अगस्त 18, 2010

हिन्दी भाषा-साहित्य की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है . तमाम तरह की हानिकारक विकिरणें समूचे साहित्य के पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही हैं . कहीं-कहीं तो स्थिति तेजाबी वर्षा की है . ऐसा नहीं है कि पहले यह कोई सदाबहार वनों वाला इलाका था और अब अचानक ही यह झुलसते हुए रेगिस्तान में तब्दील हो गया है . शर्वरी पहले भी हिंस्र पशुओं से भरी थी . पर तब इतनी महत्वाकांक्षा न थी . शिकार भूख लगने पर ही किया जाता था.

दार्शनिक विट्गेंस्टाइन कहते हैं, “दार्शनिक समस्याएं तब खड़ी होती हैं जब भाषा छुट्टी पर चली जाती है.” यानी भाषा के बेढंगेपन का विचार के बेढंगेपन से गहरा संबंध है. कवि लीलाधर जगूड़ी भी अपनी एक कविता में यही पूछते दिखते हैं कि ’पहले भाषा बिगड़ती है या विचार’ . एक काल्पनिक प्रश्न के उत्तर में कन्फ़्यूसियस अपनी प्राथमिकता बताते हुए कहते हैं “यदि भाषा सही नहीं होगी तो जो कहा गया है उसका अभिप्राय भी वही नहीं होगा; यदि जो कहा गया है उसका अभिप्राय वह नहीं है,तो जो किया जाना है,अनकिया रह जाता है; यदि यह अनकिया रह जाएगा तो नैतिकता और कला में बिगाड़ आएगा ; यदि न्याय पथभ्रष्ट होगा तो लोग असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े दिखाई देंगे. अतः जो कहा गया है उसमें कोई स्वेच्छाचारिता नहीं होनी चाहिए. यह सबसे महत्वपूर्ण बात है.”

हिंदी के एक महत्वपूर्ण कवि-समीक्षक-अनुवादक-सम्पादक नैतिकता,प्रामाणिकता और जवाबदेही के अत्यंत उत्तुंग शिखर पर बैठ पर ’प्रमाद’ दूर करने वाले अपने उच्च विचार अत्यंत आक्रामक शैली में व्यक्त करने के आदी हैं. वे अक्सर ये सात्विक विचार निहायत तामसिक भाषा में अभिव्यक्त करते हैं. पाठकों ने भी थक-हार कर अन्य गुणवत्ताओं के चलते उन्हें उनकी इस लाइलाज शैली के लिए एक रियायत-सी दे रखी है. इधर एक साहित्यिक विवाद में उन्होंने लेखक-लेखिकाओं को सोनिया और प्रियंका गांधी से मिलने का अत्यंत फूहड किंतु मौलिक सुझाव देकर अपने को हास्यास्पद बना लिया है.

सबकी खबर लेने वाला एक अखबार भी अपने वजनदार सम्पादक की विशेष रुचि के चलते अपने सम्पादकीय में एक साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक तथा एक उपन्यासकार-कुलपति के लिए अपशब्द का प्रयोग कर अपने को धन्य कर चुका है. एक महत्वपूर्ण पत्रिका के विवादप्रेमी किंतु खिलंदड़े संपादक भी बहुधा ’सुपर’ साहित्यिक सामग्री को बेहद छिछले और बाज़ारू शीर्षकों के अन्तर्गत देने में शौर्य-सुख का अनुभव करते हैं. और बावजूद इसके, हिंदी के सभी जाने-माने साहित्यकार (लेखिकाओं सहित) न केवल उन्हें अपना पूर्ण समर्थन देते-जताते आए हैं,बल्कि उनमें से अधिकांश उनके ‘सुपर बेवफाई’ अभियान में शरीक भी रहे हैं. कुछ लेखिकाओं के लिए प्रयुक्त अपशब्द का प्रतिकार उतने ही उत्तेजक अपशब्द से करने वाली एक वरिष्ठ लेखिका भी हाल तक इस अभियान में शामिल थीं.

इन सब सुर्खियों की तह में है एक सुपरिचित उपन्यासकार का वक्तव्य . अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कुछ लेखिकाओं पर अश्लीलता परोसने का आरोप लगाते हुए शुचितावादियों को तो प्रसन्न किया, पर बात को धारदार बनाने के लिए एक अपशब्द का प्रयोग कर लेखिकाओं और महिला संगठनों को नाराज कर दिया . यह अलग बात है कि कुछ सूत्र इसे साक्षात्कारकर्ता की कारीगरी अथवा संपादक की असावधानी का परिणाम बता रहे हैं.

समकालीन स्त्री-लेखन में अश्लीलता के सन्दर्भ में अमेरिकी पत्रकार एरियल लेवी (Ariel Levy) की 2006 में प्रकाशित पुस्तक ‘फीमेल शॉविनिस्ट पिग्स : वीमेन एण्ड द राइज़ ऑव रांच कल्चर’ का हवाला देना अनुचित न होगा . एरियल लेवी अपनी इस पुस्तक में लिखती हैं कि इधर स्त्रियाँ अपनी यौनिकता को एक शक्तिशाली हथियार के रूप में देखने लगीं हैं. लेखिका इस बात पर चिंता व्यक्त करती है कि स्त्रियां दूसरी औरतों को और स्वयं अपने को ‘सेक्सुअल ऑब्जेक्ट’ में बदल रही हैं. लेवी इसके लिए अमेरिकी संस्कृति के प्रभाव को उत्तरदायी ठहराती हैं. उनके अनुसार त्रासदी यह है कि स्त्रियां इसे स्त्री-मुक्ति का आयाम मानते हुए इसे स्त्री का सशक्तीकरण समझने पर आमादा हैं .

इसमें भला क्या दोराय हो सकती है कि अपशब्द के प्रयोग से बचा जाना चाहिए . क्रोध में कही गई बात अथवा किसी ’स्लिप ऑव टंग’ का भला क्या बचाव हो सकता है . बिलाशर्त विनम्र माफ़ी और चेतावनीपूर्ण क्षमादान के अलावा साहित्य में उपचार का और कोई उपयुक्त रास्ता भी क्या हो सकता है . ऐसे में पुनः विट्गेंस्टाइन की शरण में जाते हुए गलतियों का अधिकार रखने वाले मनुष्य के रूप में बस इतना भर स्वीकारने का मन करता है कि आदमी चूंकि ’चालाकी की बंजर ऊंचाई’ पर हमेशा टंगा-टिका नहीं रह सकता, इसलिए वह ’बेवकूफ़ियों की हरी-भरी घाटियों’ में विचरने उतर आता है (Never stay up on the barren heights of cleverness, but come down into the green valleys of silliness. — Ludwig Wittgenstein ) .

हिंदी समाज सामान्यतः और हिंदी के अकादमिक विभाग विशेषरूप से, पिटी-पिटाई बातों और वरिष्ठों के मुंह से सुने-सुनाए सूत्र-वाक्यों की जुगाली और उनके आधे-अधूरे प्रसरण के रचनाहीन अड्डे हैं . यहां कोई भी नया विचार, नई उद्भावना नवीन भंगिमा में कहना आपको भारी पड़ सकता है. यहां कॉपी-पेस्ट के कमाल से रचे(?) लद्दड़ शोध-प्रबंध ज्यादा मुफ़ीद उपक्रम हैं बजाय किसी उत्प्रेरक-उत्तेजक-सर्जनात्मक बहस-मुबाहिसे के. ऐसे में हम अगर कहीं जाति-धर्म-क्षेत्र-लिंग के आधार पर बंटे समाज का हिस्सा हों तो मन की बात कहने पर जोखिम और बढ़ जाता है. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह होती है कि आपके संगी-सहयोगी अपने पूर्वग्रहों और रणनीतिक दबावों के चलते तथा आपके विरोधी हिसाब-किताब चुकता करने का पहला मौका पाते ही उस वक्तव्य के प्रकाश में आपके जीवन का कुपाठ शुरू कर देते हैं. विमर्श में निन्दा के लायक कुछ होता हो तो होता हो, आपराधिक जैसा कुछ नहीं होता . गंगा नहा कर आने वाली ’कुलबोरिन’ को लक्षित कर व्यंग्य-कटाक्ष करने वाले कबीर या नारी स्वभाव के अवगुण गिनाते तुलसी उस मध्य युग में तो बच गये पर आज के असहिष्णु ,विभाजित और भ्रष्ट भारतीय समाज में सही-सलामत नहीं रह पाते .

संज्ञान में लेने लायक तथ्य यह भी है कि जिस लेखक के एक शब्द को लेकर इतना बवाल है उसी के ताजातरीन उपन्यास में स्त्री भूत को भूतनी या चुड़ैल कहने की बजाय भूत ही संबोधित करते हुए लेखक अपनी मनःस्थिति कुछ तरह बयान करता है : “मैंने बड़ी कोशिशें की पर मुझे भूत का कोई सम्मानजनक स्त्रीलिंग नहीं मिला.” इस आत्मस्वीकारोक्ति से स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता झलकती है या असंवेदनशीलता ? संदर्भित उपन्यास का कथा-नायक एक स्त्री को रुसवाई से बचाने के लिए बेहिचक मौत की सजा स्वीकार कर लेता है. ऐसे में एक शब्द के आधार पर किसी के भी बारे में किसी तुरत-फुरत नतीजे पर पहुँचना अहमकाना साबित हो सकता है. साहित्य में चीज़ें इतनी स्याह-सफ़ेद नहीं होतीं कि तुरत कोई फैसला सुनाया जा सके .

इस प्रकरण में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों और पत्रकारों से समर्थन जुटाने के उत्साह में कुछ युवा लेखक-ब्लॉगर उन भिखारियों को भी मात दे रहे हैं जो अपने विकल अंग दिखा कर जगह-जगह भीख मांगते दिखाई देते हैं. दरअसल जिसे वे सहानुभूति समझ रहे हैं वह जुगुप्सा है, जिसे पढ पाने का सामर्थ्य अभी उनमें नहीं है.यह सामर्थ्य-शक्ति तभी आ सकती है जब निजी हिसाब-किताब और महत्वाकांक्षाओं को परे रख, इस बात पर विचार किया जाए कि क्या भारत के किसी अन्य भाषा-साहित्य में हुए अन्दरूनी साहित्यिक विवाद में हिंदी लेखकों से हस्तक्षेप की गुजारिश का कोई उदाहरण हमारे सामने है ? रामबिलास शर्मा जैसे अग्रणी साहित्यकारों की मृत्यु का नोटिस तक न लेने वाले अंग्रेज़ी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इस विवाद में ज़रूरत से ज्यादा रुचि लेना और उसका अचानक इस दिशा में ‘प्रोएक्टिव’ होना आश्चर्यचकित तो करता ही है, संदेह भी जगाता है .

किसी को हटाने-बिठाने और उखाड़ने-स्थापित करने के व्यवसाय/व्यसन में पूर्णकालिक तौर पर संलग्न महाजन भले ही इस तथ्य से मुंह फेर लें पर सच तो यह है कि आम हिंदीभाषी को इन दुरभिसंधियों से कोई लेना देना नहीं है. हिंदी समाज में साक्षरता और शिक्षा के स्तर तथा साहित्य के प्रति सामान्य उदासीनता को देखते हुए कुल मिला कर यह छायायुद्ध अब एक ऐसे घृणित प्रकरण में तब्दील हो गया है जो भारतेन्दु के सपने और हिंदी जाति के एक नव-स्थापित अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय को उसके शैशव काल में ही नष्ट कर देने की स्थिति निर्मित करने का दोषी है. श्लेष का प्रभावी प्रयोग करते हुए भारतेन्दु ने हिंदी जाति के दो फल ‘फूट’ और ‘बैर’ गिनाए थे. नियति का व्यंग्य यह है कि उनका सुंदर सपना भी इन्हीं आत्मघाती फलों की भेंट चढने जा रहा है.

सदाचार को तो हम पहले ही मार चुके हैं, यह भाषा-साहित्य से सामान्य शिष्टाचार की विदाई का बुरा वक्त है .

मैत्री पर एक टीप और विवाद जो नहीं था

मई 16, 2010

१.

विवाद जो नहीं था

वह कोई विवाद नहीं था. दो मित्रों पर सखा-भाव से की गईं टिप्पणियां थीं . वह भी उनके गुणों को पर्याप्त मान देते हुए. टिप्पणियां भी उन मित्रों पर जो न केवल पिछले कई वर्षों से ब्लॉग पर एक-दूसरे के लिखे को समुचित मान-सम्मान देते रहे वरन साक्षात एक-दूसरे से मिलकर मित्रता को एक ठोस धरातल पर भी प्रतिष्ठित कर चुके थे . तब एक मित्र के लिखे को सहज भाव से लिया जाना चाहिए था, उसमें निहित प्रशंसा को वाजिब विनम्रता से स्वीकार करते हुए. तब इसके लिए समुचित सौजन्य के साथ आभार-प्रदर्शन करते हुए सुझाए गए सुधार के सूत्रों पर सूक्ष्मता से विचार करना चाहिए था. न कि  अपनी कमनीय (?)  काया को तीर-कमान बना लेना चाहिए.

ब्लॉगरी के माध्यम से बने ऐसे मित्र जिन्होंने आभासी दुनिया से निकल कर आपके वास्तविक जीवन में भी प्रवेश कर लिया हो और जो एक-दूसरे के सुख-दुख में,पारिवारिक/मांगलिक कार्यों में भी शरीक हुए हों,अगर वे इतनी भी आलोचना बर्दाश्त करने का माद्दा न रखते हों तो हमें यह मानने के लक्षण उपलब्ध होते हैं कि उनका संवेगात्मक विकास पूरी तरह नहीं हुआ है . भले ही वे उच्च पद पर हों,भले ही समाज में उनका पर्याप्त मान-सम्मान हो . यानी इंटेलेक्चुअली/सोशिअली/इकनॉमिकली भले ही वे ’जाइंट’ हों, इमोशनली वे ’पिग्मी’ हैं. पर मित्र जैसे भी हैं मित्र हैं इसलिए ईश्वर उन्हें भावनात्मक ऊंचाई और संवेगात्मक स्थिरता बख्शे .

कहते हैं चेले-चांटे और चमचे नेताओं को भरमा देते हैं,उनका दिमाग और चाल-चलन बिगाड़ देते हैं. अगर ऐसा हमारे साथ भी होने लगे तो या तो हमें अपने तथाकथित चेलों से किनारा कर लेना चाहिए या फिर उन्हें समझाना चाहिए कि हमारी यह आलोचना-समालोचना दो अभिन्न मित्रों के मध्य का आत्मीय संवाद है जिसमें उनके हस्तक्षेप  की गुंजाइश बहुत कम  है. यदि तब भी न समझें तो उन्हें अपना शत्रु मान लेना चाहिए. सबसे बड़ी दिक्कत तब होती है जब अपनी संवेगात्मक कमजोरी के चलते आप गलदश्रु भावुकता के नाटकीय प्रदर्शन के साथ उन्हें अपना शुभचिंतक मानने लगते हैं. यह रोग का चरम है .

कुछ मित्र आलोचना से सामना होते ही शाश्वत किस्म का दर्शन ठेलने लगते हैं कि जिसके पास जो होगा वही तो अभिव्यक्त करेगा; अब यह अलग बात है कि तमाम सॉफ़िस्टीकेशन के बावजूद कमंडल उनका भी रिसता रहता है. कुछ भोले और समदर्शी मित्र हैं, उनके तईं आलोचना-समालोचना और ’कीचड उछालना’ एक ही चीज़ है. पर अगर ब्लॉग जगत को परिपक्व होना है तो ऐसे भले-भोले मानुसों की भी एक्स्ट्रा क्लास लगनी चाहिए. कुछ और हैं जो दूर से मुजरा लेते हैं कि किसने किसको बजा डाला या धो डाला. उनका सर्फ़ लगता है न साबुन और मन के विकारों का विरेचन फ़िरी-फोकट में हो जाता है सो अलग. कुछ बीच-बचाव में पड़ कर सरपंचाई झाड़ने लगते हैं. पर सवाल तो यह है कि उन्हें मौका कौन मुहैया करवाता है ?

एक मित्र ने एक बार ’स्नॉबरी’  के बारे में कुछ लिखा था . दूसरे मित्र ने मांग की थी कि चिट्ठा-जगत में से भी इसके कुछ उदाहरण दिए जाएं. तब पहले मित्र ने इसमें निहित खतरों की तरफ़ इशारा किया था . अब जब मित्र महोदय की कलम से कुछ लक्षण-परिगणन हो गया है तो दूसरे मित्र ही ज्यादा आहत प्रतीत हो रहे हैं. आहत होना भी समस्या नहीं है. जब आप आहत हों तो कायदे से आहत से दिखने भी चाहिए. पर आप आहत हों और ऊपर से महानता के खोखल में उदात्त दिखने की कवायद करें और आपका आभासी आचरण कुछ और ही कहानी बयान करे,दिक्कत तब होती है.

हमें यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि हिंदी समाज मूलतः हिपोक्रिसी में गले तक धंसा  ढोंगी समाज है. हम मुगालते में रहने वाला समाज हैं. हम अपना मूल्यांकन करने में अक्षम , पर करने पर अपना अधिमूल्यन करने वाला समाज हैं. दूसरा मूल्यांकन करे तो उस पर हमलावर होने वाला समाज हैं. हम गरीबी और पिछड़ेपन के महासगर में घिरे रह कर भी अपनी सीमित निजी सफलता पर इतराने और इठलाने वाला समाज हैं. ऐसे में इसके लक्षण हिंदी ब्लॉग जगत में भी दिखें तो आश्चर्य कैसा. दाग अच्छे हैं की तर्ज़ पर कहूं तो विवाद भी अच्छे हैं अगर विवादों से कोई सबक मिलता हो,अगर वे हमें परिपक्व बनाते हों. पर हमारा अभिमुखीकरण उस ओर भी कम ही दिखाई देता है.

हिंदी चिट्ठाकारी हिंदी समाज के पुराने कुएं में लगा नया रहट है. रहट की डोलचियों में पानी तो उसी समाज का है . उस बंद समाज की समस्याएं ही हिंदी चिट्ठाकारी की भी समस्याएं हैं. समाज बदलेगा,तभी चिट्ठाकारी का स्वरूप बदलेगा. तब हिंदी चिट्ठाकारी का पोखर इतना बड़ा महासागर होगा जिसे छोटे-मोटे दूषक तत्व प्रदूषित नहीं कर पाएंगे. तब तक हम सब अपने गिलहरी मार्का प्रयास जारी रखें और उस अच्छे समय की प्रतीक्षा करें .

***** 

(बात मित्रों के बीच की थी. इधर मैत्री पर एक विशेष अंक का संयोजन करते हुए मैत्री पर एक नोट जैसा कुछ लिखा था . आप मित्रों की नज़्र करता हूं,विशेषकर उन मित्रों को जिन्हें लेकर आप सब उद्वेलित हैं.)

२.

मित्र बुरे दिनों की पतवार होते हैं और अच्छे दिनों का संगीत

हमें अपना असली अक्स देखना हो मैत्री के आईने में देखना चाहिए . मित्र वह दर्पण है जिसमें हमें अपने व्यक्तित्व का सही-सही प्रतिरूप दिखाई देता है . अच्छा-बुरा जैसा भी हो . सच्चा मित्र वह कसौटी है जिस पर हम अपने गुण-दोष,अपना खरापन कस कर देख सकते हैं . मित्र हमारा आत्मरूप होते हैं . इसीलिए अरस्तु ने उचित ही कहा है,”मित्र क्या है? दो शरीरों में एक आत्मा.” मित्र हमारे व्यक्तित्व के वह पक्ष भी जानते हैं जिनके बारे में हम खुद भी अनजान होते हैं . मित्र हमारे गुण भी जानता है और अवगुण भी . और तब भी हमें प्रेम करता है .

मित्र चाहे जितने दूर हों वे हमारे निकट होते हैं,एक विश्वसनीय उपस्थिति की तरह . वे अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थित होते हैं. सच्चे मित्र अलग-अलग रास्ते चुनने के बाद भी एक-दूसरे से दूर नहीं होते . हम जो कहते हैं मित्र बहुत ध्यान से सुनता है . मित्र वह भी सुन लेता है जो हम कह नहीं पाते . मित्रता की भाषा में शब्द नहीं होते,सिर्फ़ अर्थ होते हैं.जब सारी दुनिया हमारा साथ छोड़ देती है,तब भी वह सहायता के लिये अपना हाथ आगे बढाता है . वह हमारा हाथ थामता है और हमारे दिल की थाह पा लेता है . सच्चा मित्र परीक्षा नहीं लेता — स्पष्टीकरण नहीं मांगता — भरोसा करता है. जब हम खुद पर भरोसा खो चुके होते हैं,मित्र तब भी हम पर भरोसा करता है .मित्र हमारे जीवन की ’रेसिपी’ का सबसे महत्वपूर्ण अवयव होते हैं, उनके बिना जीवन स्वादहीन है . मित्र जीवन का नमक होते हैं . हमारे जीवन की इमारत की मजबूत आधारशिला .

मित्रता अह्लाद की कहानी है और आंसुओं की भी . जब हम खुश होते हैं तो मित्र का मन-मयूर खिल उठता है . और जब हम दुःख से विकल होते हैं तो हमारे आंसुओं का नमक मित्र को बेचैन करता है और वह हमारे दुखों के खिलाफ़ दुर्ग-दीवार बन जाता है . मित्र बुरे दिनों की पतवार होते हैं और अच्छे दिनों का संगीत . खलील जिब्रान ने ठीक ही लिखा है कि ’मित्रता अवसर नहीं,बल्कि हमेशा एक मधुर उत्तरदायित्व है.’ सच्चे मित्र प्रतिदान की प्रत्याशा के बिना भी आपका रक्षा-कवच होते हैं . हम सब एक पंख वाले देवदूत हैं,मित्र हमारा दूसरा पंख होते हैं . मित्र हमारे भीतर से सर्वश्रेष्ठ का उत्खनन और निष्कर्षण करते हैं. वे हमारे सपनों को उड़ान देते हैं और हमारी कल्पनाओं को मुक्त आकाश . वे हमारे सपनों के संरक्षक होते हैं .

मित्र के बिना जीवन वैसा ही है जैसे सूर्य के बिना संसार . मित्र का एक पर्यायवाची सूर्य भी है . मित्र हमारे जीवन में प्रकाश का स्रोत हैं .जितना अधिक अंधेरा समय होगा मित्रता का सूरज उतनी तेजी से चमकेगा . मित्र हमारे जीवन का इन्द्रधनुष हैं. हमारे जीवन की बगिया के सबसे सुवासित पुष्प . मैत्री के उद्यान को अनुचित प्रत्याशाओं और अविश्वास की गर्म हवाओं से बचाना चाहिये तथा उसे भरोसे के भुरभुरे संस्पर्श,समझदारी के प्रकाश और आत्मीयता के निर्मल जल से पोषित करना चाहिए . साथ बिताए गए समय की आत्मीय स्मृतियां और मित्रों के साझा सुख-दुःख मैत्री की यात्रा का पाथेय होते हैं . इसलिये मैत्री के इस सफ़र को हमारा आत्मीय अवधान मिलना चाहिए तथा मैत्री-संबंध को बहुत जतन से सहेजना और समुचित समादर से सराहना चाहिए .

मैत्री के लिये हमें अपने मन के द्वार हमेशा खुले रखने चाहिए . अज़नबी भी प्रतीक्षारत मित्र साबित हो सकते हैं . आखिर हर एक मित्र एक दिन हमारे लिये अज़नबी ही था . मित्र वही है जो हमारे कदम से कदम मिलाकर हमारे साथ चले . अल्बेर कामू की भाषा में कहें तो :

” Don’t walk in front of me, I may not follow .

Don’t walk behind me, I may not lead .

Walk beside me and be my friend . ”

मित्र हमारे व्यक्तित्व का विकास करते हैं और परिष्कार में सहायक होते हैं . वे एक-दूसरे के पूरक होते हैं . मनोवेत्ता कार्ल जुंग कहते हैं,”दो व्यक्तित्वों का मिलन दो रासायनिक पदार्थों के सम्पर्क की तरह होता है,यदि प्रतिक्रिया होती है तो दोनों रूपान्तरित होते हैं .” चूंकि मित्र एक-दूसरे को बदलते हैं . एक-दूसरे को अच्छे और बुरे रूप में प्रभावित करते हैं. इसी बिंदु पर सदाचारी मित्रों की संगत महत्वपूर्ण हो उठती है . शायद इसीलिए समाज में व्यक्ति अपने साथ से —  अपने मित्रों से — पहचाना जाता है .

सच्ची मित्रता अनमोल होती है . बाइबल(ओल्ड टेस्टामेंट) में कहा गया है,” Faithful friends are beyond price: No amount can balance their worth .” मित्र हमारी सबसे बड़ी सम्पदा होते हैं . ईश्वर का सबसे सुन्दर उपहार . इसीलिये तो कहा गया है :

“Friendship, a peculiar boon of heaven

The nobel mind’s delight and pride

To men and angels only given

To all the lower world denied .”

आइए मैत्री के सूर्य को नेह का जल अर्पित करें और उसके तमोहारी तेज का अंश ग्रहण करें. आमीन !

*******

*(बहुत दिनों से ब्लॉग पर कुछ नहीं लिखा था. सभी मित्र इससे दुखी और आहत थे,विशेषकर अफ़लातून भाई. यह पोस्ट उन्हें समर्पित करता हूं.)

साहित्यानुरागी

जुलाई 4, 2008

चौपटस्वामी की चौपट कविता

  

साहित्यानुरागी

 

 बाबा छाप या एक-सौ बीस

डालकर   देसी पत्ता

चुभलाते-चबाते हुए

— कचर-कचर

पीक इतै-उतै थूकते

बगराते   हुए

— पचर-पचर

चेलों की जमात से लगातार

बोलते-बतियाते हुए

— कचर-पचर

वे सुन रहे हैं कवि की कविता

अंगुली से चूना चाटते हुए

दोहरे हुए जाते हैं आनन्द में

बोलते हुए, ‘लचर-लचर’ ।

 

****

जोकर

मई 23, 2008

निलय उपाध्याय की एक कविता

 

जोकर

 

सबसे पहले किसे जलील करते हैं जोकर ?

खुद को ।

 

उसके बाद किसे जलील करते हैं ?

समाजियों और नर्तकों को ।

 

और उसके बाद ?

 

उसके बाद

बहुत आक्रामक हो जाती है जोकर मुद्रा

वे हंसते हुए उतार लेते हैं

देवताओं के कपड़े ।

 

जो जानते हैं अश्लीलता की ताकत

और समाज में

उसे सिद्ध करने की कला

सिर्फ़ जोकर नहीं होते ।

 

*****

( नंदकिशोर नवल व संजय शांडिल्य द्वारा संपादित काव्य संकलन ‘संधि-वेला’ से साभार )

 

तीन कुत्ते

फ़रवरी 12, 2008

तीन कुत्ते धूप खाते हुए बातें करते जाते थे ।

पहले कुत्ते ने मानो स्वप्न देखते हुए कहा, “वास्तव में यह बड़े आनन्द की बात है कि हम इस ‘श्वानयुग’ में पैदा हुए हैं। भला, सोचो तो सही,कितनी सहूलियत से हम लोग जल,थल और आकाश की यात्रा करते हैं। देखो न, हमारे आराम के लिए, यहां तक कि हमारी आंख,कान,नासिका के सुख के लिए, कैसे-कैसे आविष्कार हुए हैं।”

तब दूसरा कुत्ता बोला, “अजी, इतना ही नहीं ,कला के प्रति भी हमारा झुकाव हुआ है। चंद्रमा को देखकर हम लोग अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक ताल-स्वर से भौंकते हैं। जब हम पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं तो हमें अपना चेहरा पूर्वकाल की अपेक्षा अधिक सुघड़ नज़र आता है।”

तब तीसरे कुत्ते ने कहा, “सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस श्वानयुग में कितना सुस्थिर विचार-साम्य है।”

इसी समय उन्होंने देखा कि कुत्ता पकड़नेवाला चला आ रहा है।

तीनों कुत्ते छलांग मारते हुए गली में भागे। भागते-भागते तीसरे कुत्ते ने कहा, “प्राण बचाना चाहते हो तो जल्दी भागो, सभ्यता हमारे पीछे पड़ी हुई है।”

 

—   खलील जिब्रान

 

*****

पुस्तक ‘दि वान्डरर’ के हिंदी अनुवाद ‘बटोही’ से साभार

प्रकाशक : सस्ता साहित्य मंडल,नई दिल्ली

भविष्य के परिवार बकलम टॉफ़लर – 3

नवम्बर 19, 2007

 

 भविष्य के समाचार पत्रों में युवा विवाहित युगलों को संबोधित ऐसे विज्ञापन देखने को मिलेंगे :  

 ‘ मातृत्व और पितृत्व के बोझ से क्यों दबें ? हमें अपने शिशु को उत्तरदायी और सफल वयस्क के रूप में बड़ा करने का अवसर दें । प्रथम श्रेणी के व्यावसायिक-परिवार का प्रस्ताव : पिता की उम्र 39 , मां की 36, दादी की 67 । चाचा और चाची, उम्र 30, साथ रहते हैं, अंशकालिक स्थानीय रोजगार में संलग्न । चार बच्चों वाली इकाई में   6 से 8 वर्ष के एक  बच्चे के लिए स्थान उपलब्ध है । सरकारी मानकों से बेहतर सुव्यवस्थित आहार । सभी वयस्क बाल विकास और प्रबंधन में प्रमाणपत्रधारी हैं । जैव माता-पिता को निरंतर मेल-जोल की अनुमति । टेलीफोन संपर्क की इजाजत । बच्चा ग्रीष्मकालीन अवकाश जैव माता-पिता के साथ बिता सकता है । धर्म, कला, संगीत के प्रोत्साहन हेतु विशेष व्यवस्था । कम से कम पांच वर्ष का अनुबंध । अधिक विवरण के लिए लिखें । ‘

 सामुदायिक परिवार में एक बिल्कुल अलग विकल्प दिखाई देता है । जैसे-जैसे समाज में  अस्थायित्व की वजह से एकाकीपन और अजनबीपन बढ़ता जाएगा, समूह विवाह के कई रूपों का प्रचलन  बढ़ने का अनुमान है । मनोविज्ञानी बी.एफ स्किनर द्वारा ‘वाल्डेन टू’ में और उपन्यासकार  रॉबर्ट रिमर द्वारा ‘द हैराद एक्सपेरीमेंट एण्ड प्रोपोजीशन 31’ में किए गए वर्णन के आधार पर गढ़े हुए ‘कम्यून’ जगह-जगह दिखाई देने लगे हैं । रिमर तो गम्भीरता से ‘कॉरपोरेट परिवार’ को कानूनी मान्यता देने का प्रस्ताव रखते हैं , जिसमें तीन से छह वयस्क एक नाम अडॉप्ट करेंगे, साथ-साथ रहेंगे और साझे रूप से बच्चों का पालन-पोषण करेंगे, तथा कुछ आर्थिक व कर संबंधी सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए कानूनी रूप से  शामिलात रहेंगे ।

 भविष्य में एक और प्रकार की पारिवारिक इकाई के अनुयायियों के बढ़ने की सम्भावना है, इसे ‘जेरिऐट्रिक्स कम्यून’ — वृद्धों का समुदाय — नाम दे सकते हैं । यह सहचारिता और सहयोग की साझी तलाश में एक-दूसरे के निकट आये वयोवृद्ध लोगों का सामूहिक विवाह होगा ।
ज्यों-ज्यों समलैंगिकता की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ती जाएगी, हमें ऐसे समलिंगी विवाहों पर आधारित परिवार भी मिलने लगेंगे जिनमें जोड़ीदार बच्चे गोद लेंगे। काम संबंधी वर्जनाओं के शिथिल होने तथा बढ़ती समृद्धि के फलस्वरूप सम्पति के अधिकारों का महत्व घटने से बहुविवाह का दमन असंगत समझा जाएगा और बहुविवाह पर प्रतिबंध क्रमश: शिथिल होते जाएंगे ।

 चूंकि मानवीय संबंध अधिक अस्थाई और अल्पकालिक होते जा रहे हैं, प्रेम की खोज और अधिक उन्मादपूर्ण हो गई है । पर लौकिक प्रत्याशायें  हैं  कि बदलती रहती हैं । चूंकि पारम्परिक विवाह जीवन-पर्यन्त प्रेम के वादे को पूरा करने में अधिकाधिक असमर्थ  साबित हो रहा है, अत: हम अस्थायी विवाहों की जनस्वीकार्यता का पूर्वानुमान कर सकते हैं । इस प्रकार के विवाह में युगल को विवाह के बंधन में बंधने के पहले  ही यह पता होता है कि यह संबंध अल्पकालिक होगा ।

 इस अस्थायित्व के युग में, जिसमें मानव के सभी संबंध, पर्यावरण के साथ उसके सभी जुड़ाव बहुत अल्पकालिक होते जा रहे हैं, धारावाहिक विवाह — कई अस्थायी विवाहों की श्रंखला– एकदम उपयुक्त हैं । विवाह का यह प्रतिरूप आनेवाले दिनों में मुख्य धारा में होगा । परीक्षण विवाह , मान्यताप्राप्त पूर्व-विवाह, तीन से 18 महीने के परिवीक्षाधीन विवाह — कुछ अन्य नए प्रकार के प्रायोगिक विवाह होंगे जो टॉफलर के अनुसार भविष्य में आजमाये जाएंगे ।

 अति-औद्योगिक क्रांति मानव को उन कई बर्बरताओं से मुक्ति दिलाएगी जिनका जन्म कल और आज के प्रतिबंधक और अपेक्षाकृत चुनावरहित परिवार-प्रकारों से हुआ था । यह क्रांति प्रत्येक व्यक्ति को  अभूतपूर्व स्वतंत्रता उपलब्ध करायेगी । पर यह इस स्वतंत्रता की मनमानी कीमत भी वसूल करेगी ।

 

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                     ( टॉफ़लर की पुस्तक ‘फ्यूचर शॉक’   के आधार पर )  

आपोन काजे अचोल होले चोलबे ना, भाई चोलबे ना …

नवम्बर 15, 2007

यह एक   स्वतःस्फूर्त महारैली थी . और तदुपरांत एक ऐतिहासिक जनसमावेश .

कोलकाता की भाषा में कहें तो ‘महामिछिल‘ .

यूं तो कोलकाता को ‘मिछिलकेजुलूसों के — शहर के रूप में जाना जाता है . और सबके लिए अपना ‘मिछिल’  होता है ‘महामिछिल’ .

पर इस महाजुलूस की बात ही कुछ और थी . बिना किसी राजनैतिक पार्टी के आह्वान के, सिर्फ़ बुद्धिजीवियों की पुकार पर, यह आम नागरिकों का स्वतःस्फूर्त समावेश था .

किसी को लाया नहीं गया था,किसी को मुफ़्त खिलाया नहीं गया था , किसी को कुछ दिया नहीं गया;बल्कि उनसे कुछ लिया ही गया —  नंदीग्राम के संकटग्रस्त — मुसीबतज़दा — किसानों की यथासम्भव मदद के लिए यथासामर्थ्य धनराशि .

और वही मध्यवर्ग दे रहा था जिसे न जाने कितनी बार हम और आप उसकी जीवनशैली और लिप्सा के लिए बुरा-भला कह चुके हैं .

दुपट्टे फैलाए युवतियां और साड़ी-चादरें फैलाए युवक घूम रहे थे और उपस्थित जनसमुदाय अपने हिसाब से दे रहा था, यथासामर्थ्य दस-बीस-पचास-सौ-पांचसौ रुपए .

कुछ तो था इस बार की पुकार में और इस बार की हुंकार में . जो इससे पहले देखने में नहीं आया .

किसी भी राजनैतिक पार्टी का झंडा नहीं . कोई राजनैतिक नारा नहीं . बेचैनी और उद्वेग से भरा अपार जन-सैलाब . अपने मुखर मौन से अपराधी राजनीति को आतंकित करता सा .

जुलूस कॉलेज स्क्वायर से शुरू हुआ और धर्मतल्ला पर स्थित मेधा पाटकर के मंच के निकट पहुंच कर एक बहुत बड़े समावेश में बदल गया .

नंदीग्राम की वीभत्स घटना और उस पर राज्य के मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया से नाराज़ लगभग अस्सी हज़ार से एक लाख विचलित किंतु आत्म-नियंत्रित शांतिकामी जनता का स्वतःस्फूर्त जमावड़ा . 

साथ में थे उनके प्रिय लेखक-चित्रकार-गीतकार-फिल्मकार-गायक-नाट्यकर्मी-डॉक्टर-वैज्ञानिक-वकील-विद्यार्थी गण .

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के  विरल उदाहरण को छोड़ दें तो,  सत्ता हस्तगत करने की दलीय राजनीतिक आकांक्षा से बुलाए गए समावेशों से  परे यह अनूठा जनसमावेश था .

प्रतुल मुखोपाध्याय,पल्लब कीर्तनिया,रूपम और नचिकेता जैसे गायक जनगीत गा रहे थे और हज़ारों लोग उनकी आवाज़ से आवाज़ मिला रहे थे — दुहरा रहे थे . दिल-दिमाग पर छा जाने वाला अद्भुत दृश्य .

इसे महाश्वेता देवी,मेधा पाटकर,जोगेन चौधरी,विभास चक्रवर्ती आदि समाजचेता बुद्धिजीवियों ने सम्बोधित किया .

महाश्वेता देवी ने कहा कि ‘इस समय किसी का अलग कोई नाम नहीं है, सबका नाम है नंदीग्राम’ .

मेधा पाटकर ने कहा कि ‘नंदीग्राम की चिंगारी आग का रूप लेगी. विकास के नाम पर राज्य सरकार झूठ पर झूठ बोले जा रही है. ‘ उन्होंने कहा कि माकपा के कुछ-सौ समर्थक प्रभावित हुए हैं जबकि अत्याचार-पीडित ग्रामवासियों की संख्या दस से पन्द्रह हज़ार है .

इस महाजुलूस/जनसमावेश में शामिल थे महाश्वेता देवी,शंख घोष, सांओली मित्रा,मृणाल सेन,शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय,नवनीता देबसेन, जॉय गोस्वामी,अपर्णा सेन, शुभप्रसन्न, जोगेन चौधरी,विभास चक्रवर्ती,मनोज मित्रा,पूर्णदास बउल,सोहाग सेन,गौतम घोष, ऋतुपर्ण घोष,ममता शंकर, कौशिक सेन, अंजन दत्त,संदीप रॉय, पल्लब कीर्तनिया, नचिकेता, रूपम, परम्ब्रत चटर्जी आदि प्रमुख संस्कृतिकर्मी .

एक ओर जहां मृणाल सेन का आना और उषा उत्थुप का आना और गाना समरशॉल्ट जैसा आश्चर्य था, वहीं अभिनेत्री सोहिनी सेनगुप्ता हल्दर का शामिल होना परिवार के बीच वैचारिक अंतर और व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो सकता है अथवा सोची-समझी रणनीति भी .

उनके पतिदेव और नाट्यकर्मी गौतम हालदार आज एक सरकार-समर्थक बुद्धिजीवियों के शांतिबहाली जुलूस का संयोजन करेंगे जिसमें अभिनेता सौमित्र चटर्जी,लेखक सुनील गंगोपाध्याय,पवित्र सरकार,सुबोध सरकार, मल्लिका सेनगुप्ता,जादूगर पीसी सरकार (जूनियर),नाट्यकर्मी उषा गांगुली, शोभा सेन,गायक अमर पाल और अजीजुल हक आदि के शामिल होने की बात है .

खैर कठिन समय में ही यह पहचान होती है कि आप किसकी ओर हैं — आपकी प्रतिबद्धता किधर है .

एक लाख लोगों का यह विरोध क्या गुल खिलाएगा ?  क्या  यह  ‘मोमेन्टम’ लम्बे समय तक जारी रह सकेगा या छीज जाएगा ?  मुझे नहीं पता .

क्या यह बंगाल की राजनीति या सीपीएम के चरित्र में कुछ बदलाव लाएगा ? मैं सचमुच संदेह के घेरे में हूं .

मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य तथा सीपीएम नेता बिनय कोनार, श्यामल चक्रवर्ती,बिमान बोस और सुभाष चक्रवर्ती के हाल तक के बयानों से लगता तो नहीं कि उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा या खेद या खिन्नता जैसा कोई मनोभाव उपजा हो .

बल्कि इसका उल्टा सोचने के  कारण ज्यादा हैं .

तब आशा की किरण कहां है ?

आशा की एक किरण तो वे छोटे सहयोगी दल — आरएसपी और फ़ॉर्वर्ड ब्लॉक हैं जिन्होंने सीपीएम के इस कारनामे से अलग खड़े होना और दिखना तय किया है .

क्षिति गोस्वामी जैसे वाम मोर्चा के मंत्री हैं जिन्होंने मंत्री पद छोडने की इच्छा जाहिर करते हुए त्यागपत्र देने की घोषणा की है .

उनका यह कहना भी पर्याप्त साहस का काम है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य नरेन्द्र मोदी के रास्ते पर चल रहे हैं .

बस इस काले और सर्द समय में इतनी-सी ही उम्मीद बची है जिसके सहारे हमें एक सुहानी सुबह की प्रतीक्षा है .

और यही प्रतीक्षा उन्हें भी है जो नंदीग्राम में एक साल के लम्बे सूर्यास्त में सिर्फ़ बम और बंदूकों की आवाज़ सुन पा रहे थे .

सूर्योदय हुआ नहीं है . सूर्योदय की प्रतीक्षा है .

आमीन!

 

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कवि की आंखें

नवम्बर 13, 2007

शंख घोष और अपर्णा सेन

कवि की बेधक आंखें सात परदों के भीतर का सच देख सकती हैं . कवि की जुबान पर बसती है सच्चाई . कवि के भीतर झंकृत होता है जन-गण का मन . झलकता है लोक का आलोक और उसके दुख का धूसर रंग . उसकी वाणी कहती है धरती की पीड़ा,बेजुबानों के दुख —  गूंगी हो चुकी भाषा का संताप . 

कवि कहता है वह सब जो होता है होशियारों के लिए अकथनीय  . दुनियादारों के लिए अवर्णनीय .  बिल्ली के  पैने दांतों की हिंसक चमक देख कर एक कवि ही कह सकता है बिल्ली के नरभक्षी बाघ बन जाने की कहानी . एक कवि की दृष्टि गला सकती है ज्ञानगुमानी और अत्याचारी शासक के लौह-कपाटों को . उसकी सात्विक ललकार  से  सफ़ेद पड़  जाता है अहंकारी और उद्धत शासक की शिराओं का समूचा रक्त . कवि की आंखों में बसा है समता और स्वतंत्रता महान सपना .

कवि के लिए लाल झंडा प्रतीक है चेतना का,आतंक का नहीं . लाल झंडे से जुड़ा था एक सपना —  मानव की मुक्ति का सपना .  क्या हुआ उस सपने का ?  कहां गिरवी रखा है वह सपना ? बदले में क्या पाया ?  कल तक साथ रहे वे तपे हुए ‘विज़नरी’ साथी  कहां गए ?  वे कौन हैं जिनके हाथ में दिख रहा है लाल झंडा ?

यही सब  सवाल  छुपे हैं कवि की प्रश्नाकुल और आहत आंखों में . फ़िलहाल जवाब  कहीं नहीं  दिखता .

पर कवि तो प्रजापति है इस अपार काव्य संसार का . उसके पास तो सपना है — एक नई दुनिया का .

उत्तर भी होंगे ही . आशा की डोर छूटी है .  टूटी नहीं है .

 

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भविष्य के परिवार बकलम टॉफ़लर – 2

नवम्बर 12, 2007

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 तीव्र सामाजिक परिवर्तन तथा वैज्ञानिक क्रांति को डांवांडोल करनेवाला सुपर-इण्डस्ट्रियल व्यक्ति परिवार के नए रूपों को अपनाने पर विचार करेगा तथा विविधरंगी पारिवारिक व्यवस्थाओं को आजमाएगा । इसका श्रीगणेश वे वर्तमान व्यवस्था से छेड़छाड़ द्वारा करेंगे। …पूर्व-औद्योगिक परिवारों में न केवल बहुत सारे बच्चे होते थे, वरन उन परिवारों में कई  अन्य आश्रित यथा दादा-दादी, चाचा-चाची तथा चचेरे भाई-बहन आदि संबंधी भी होते थे । इस तरह के विस्तृत परिवार धीमी गति वाले कृषि-आधारित समाज़ों के लिए उपयुक्त थे । परंतु ऐसे ‘अचल’ परिवारों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना मुश्किल होता था, अत: औद्योगिकता की मांग के अनुसार विस्तृत परिवार अपना अतिरिक्त भार त्याग कर तथाकथित ‘न्यूक्लियर’ परिवार के रूप में उभरे, जिसमें माता-पिता और कम बच्चों पर बल दिया जाने लगा । नई शैली का यह अधिक गतिशील परिवार औद्योगिक देशों का मानक आदर्श बन गया ।

 परंतु आर्थिक-प्रौद्योगिकीय विकास का अगला चरण अति-औद्योगिकता का होगा । इसमें और अधिक गतिशीलता की आवश्यकता होगी । अत: हम यह आशा कर सकते है कि भविष्य के लोग संतानहीन रहकर परिवार को कारगर बनाने की प्रक्रिया को एक-कदम आगे ले जाएंगे । यह आज अजीब सा लग सकता है, परंतु जब प्रजनन का संबंध उसके जैविक आधार से टूट जाएगा तो युवा और अधेड़ दम्पतियों के संतानहीन रहने की संभावना बढ़ जाएगी । आज स्त्री व पुरुष अक्सर ‘कैरियर’ के प्रति प्रतिबद्धता तथा बच्चों के प्रति प्रतिबद्धता के द्वन्द्व के मध्य विभाजित हैं । इसलिए भविष्य में बहुत से दम्पति बच्चों के पालन-पोषण के काम को सेवानिवृत्ति तक स्थगित कर देंगे और इस समस्या से बच निकलेंगे । सेवानिवृत्ति के पश्चात बच्चों को जन्म देने वाले परिवार भविष्य की मान्य सामाजिक संस्था होंगे ।

 यदि कुछ ही परिवार बच्चों का लालन-पालन करेंगे तो वे बच्चे उनके ही क्यों होने चाहिए ? ऐसी व्यवस्था क्यों न हो जिसमें व्यावसायिक दक्षता वाले माता-पिता दूसरों के लिए बच्चों का लालन-पालन करें ?

वर्तमान व्यवस्था चरमरा रही है और हम अति-औद्योगिक क्रांति से हकबकाये हुए हैं । युवा अपराधियों की संख्या में जबरदस्त बढोतरी हुई है, सैकड़ों युवा घर छोड़कर भाग रहे  हैं  और प्रौद्योगिक-समाज़ों के विश्वविद्यालयों में छात्र  उत्पात मचा रहे  हैं ।

 यों युवाओं की समस्या से निपटने के कई अधिक बेहतर तरीके हैं, पर व्यावसायिक ‘पेरेन्टहुड’ को भी  निश्चित रूप से आजमाया जाएगा, क्योंकि यह विशेषज्ञता की ओर समाज के समग्र प्रयास के साथ पूर्णत: मेल खाता है ।

 प्रचुरता और विशेषज्ञता से सुसज्जित लाइसेन्सधारी व्यावसायिक माता-पिताओं की उपलब्धता  पर कई जैविक माता-पिता न केवल खुशी-खुशी अपने बच्चे उन्हें सौंप देंगे वरन् वे इसे बच्चे के ‘बहिष्करण’  के बजाय, स्नेह के एक बरताव के रूप में देखेंगे ।

 

क्रमशः …