१.
विवाद जो नहीं था
वह कोई विवाद नहीं था. दो मित्रों पर सखा-भाव से की गईं टिप्पणियां थीं . वह भी उनके गुणों को पर्याप्त मान देते हुए. टिप्पणियां भी उन मित्रों पर जो न केवल पिछले कई वर्षों से ब्लॉग पर एक-दूसरे के लिखे को समुचित मान-सम्मान देते रहे वरन साक्षात एक-दूसरे से मिलकर मित्रता को एक ठोस धरातल पर भी प्रतिष्ठित कर चुके थे . तब एक मित्र के लिखे को सहज भाव से लिया जाना चाहिए था, उसमें निहित प्रशंसा को वाजिब विनम्रता से स्वीकार करते हुए. तब इसके लिए समुचित सौजन्य के साथ आभार-प्रदर्शन करते हुए सुझाए गए सुधार के सूत्रों पर सूक्ष्मता से विचार करना चाहिए था. न कि अपनी कमनीय (?) काया को तीर-कमान बना लेना चाहिए.
ब्लॉगरी के माध्यम से बने ऐसे मित्र जिन्होंने आभासी दुनिया से निकल कर आपके वास्तविक जीवन में भी प्रवेश कर लिया हो और जो एक-दूसरे के सुख-दुख में,पारिवारिक/मांगलिक कार्यों में भी शरीक हुए हों,अगर वे इतनी भी आलोचना बर्दाश्त करने का माद्दा न रखते हों तो हमें यह मानने के लक्षण उपलब्ध होते हैं कि उनका संवेगात्मक विकास पूरी तरह नहीं हुआ है . भले ही वे उच्च पद पर हों,भले ही समाज में उनका पर्याप्त मान-सम्मान हो . यानी इंटेलेक्चुअली/सोशिअली/इकनॉमिकली भले ही वे ’जाइंट’ हों, इमोशनली वे ’पिग्मी’ हैं. पर मित्र जैसे भी हैं मित्र हैं इसलिए ईश्वर उन्हें भावनात्मक ऊंचाई और संवेगात्मक स्थिरता बख्शे .
कहते हैं चेले-चांटे और चमचे नेताओं को भरमा देते हैं,उनका दिमाग और चाल-चलन बिगाड़ देते हैं. अगर ऐसा हमारे साथ भी होने लगे तो या तो हमें अपने तथाकथित चेलों से किनारा कर लेना चाहिए या फिर उन्हें समझाना चाहिए कि हमारी यह आलोचना-समालोचना दो अभिन्न मित्रों के मध्य का आत्मीय संवाद है जिसमें उनके हस्तक्षेप की गुंजाइश बहुत कम है. यदि तब भी न समझें तो उन्हें अपना शत्रु मान लेना चाहिए. सबसे बड़ी दिक्कत तब होती है जब अपनी संवेगात्मक कमजोरी के चलते आप गलदश्रु भावुकता के नाटकीय प्रदर्शन के साथ उन्हें अपना शुभचिंतक मानने लगते हैं. यह रोग का चरम है .
कुछ मित्र आलोचना से सामना होते ही शाश्वत किस्म का दर्शन ठेलने लगते हैं कि जिसके पास जो होगा वही तो अभिव्यक्त करेगा; अब यह अलग बात है कि तमाम सॉफ़िस्टीकेशन के बावजूद कमंडल उनका भी रिसता रहता है. कुछ भोले और समदर्शी मित्र हैं, उनके तईं आलोचना-समालोचना और ’कीचड उछालना’ एक ही चीज़ है. पर अगर ब्लॉग जगत को परिपक्व होना है तो ऐसे भले-भोले मानुसों की भी एक्स्ट्रा क्लास लगनी चाहिए. कुछ और हैं जो दूर से मुजरा लेते हैं कि किसने किसको बजा डाला या धो डाला. उनका सर्फ़ लगता है न साबुन और मन के विकारों का विरेचन फ़िरी-फोकट में हो जाता है सो अलग. कुछ बीच-बचाव में पड़ कर सरपंचाई झाड़ने लगते हैं. पर सवाल तो यह है कि उन्हें मौका कौन मुहैया करवाता है ?
एक मित्र ने एक बार ’स्नॉबरी’ के बारे में कुछ लिखा था . दूसरे मित्र ने मांग की थी कि चिट्ठा-जगत में से भी इसके कुछ उदाहरण दिए जाएं. तब पहले मित्र ने इसमें निहित खतरों की तरफ़ इशारा किया था . अब जब मित्र महोदय की कलम से कुछ लक्षण-परिगणन हो गया है तो दूसरे मित्र ही ज्यादा आहत प्रतीत हो रहे हैं. आहत होना भी समस्या नहीं है. जब आप आहत हों तो कायदे से आहत से दिखने भी चाहिए. पर आप आहत हों और ऊपर से महानता के खोखल में उदात्त दिखने की कवायद करें और आपका आभासी आचरण कुछ और ही कहानी बयान करे,दिक्कत तब होती है.
हमें यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि हिंदी समाज मूलतः हिपोक्रिसी में गले तक धंसा ढोंगी समाज है. हम मुगालते में रहने वाला समाज हैं. हम अपना मूल्यांकन करने में अक्षम , पर करने पर अपना अधिमूल्यन करने वाला समाज हैं. दूसरा मूल्यांकन करे तो उस पर हमलावर होने वाला समाज हैं. हम गरीबी और पिछड़ेपन के महासगर में घिरे रह कर भी अपनी सीमित निजी सफलता पर इतराने और इठलाने वाला समाज हैं. ऐसे में इसके लक्षण हिंदी ब्लॉग जगत में भी दिखें तो आश्चर्य कैसा. दाग अच्छे हैं की तर्ज़ पर कहूं तो विवाद भी अच्छे हैं अगर विवादों से कोई सबक मिलता हो,अगर वे हमें परिपक्व बनाते हों. पर हमारा अभिमुखीकरण उस ओर भी कम ही दिखाई देता है.
हिंदी चिट्ठाकारी हिंदी समाज के पुराने कुएं में लगा नया रहट है. रहट की डोलचियों में पानी तो उसी समाज का है . उस बंद समाज की समस्याएं ही हिंदी चिट्ठाकारी की भी समस्याएं हैं. समाज बदलेगा,तभी चिट्ठाकारी का स्वरूप बदलेगा. तब हिंदी चिट्ठाकारी का पोखर इतना बड़ा महासागर होगा जिसे छोटे-मोटे दूषक तत्व प्रदूषित नहीं कर पाएंगे. तब तक हम सब अपने गिलहरी मार्का प्रयास जारी रखें और उस अच्छे समय की प्रतीक्षा करें .
*****
(बात मित्रों के बीच की थी. इधर मैत्री पर एक विशेष अंक का संयोजन करते हुए मैत्री पर एक नोट जैसा कुछ लिखा था . आप मित्रों की नज़्र करता हूं,विशेषकर उन मित्रों को जिन्हें लेकर आप सब उद्वेलित हैं.)
२.
मित्र बुरे दिनों की पतवार होते हैं और अच्छे दिनों का संगीत
हमें अपना असली अक्स देखना हो मैत्री के आईने में देखना चाहिए . मित्र वह दर्पण है जिसमें हमें अपने व्यक्तित्व का सही-सही प्रतिरूप दिखाई देता है . अच्छा-बुरा जैसा भी हो . सच्चा मित्र वह कसौटी है जिस पर हम अपने गुण-दोष,अपना खरापन कस कर देख सकते हैं . मित्र हमारा आत्मरूप होते हैं . इसीलिए अरस्तु ने उचित ही कहा है,”मित्र क्या है? दो शरीरों में एक आत्मा.” मित्र हमारे व्यक्तित्व के वह पक्ष भी जानते हैं जिनके बारे में हम खुद भी अनजान होते हैं . मित्र हमारे गुण भी जानता है और अवगुण भी . और तब भी हमें प्रेम करता है .
मित्र चाहे जितने दूर हों वे हमारे निकट होते हैं,एक विश्वसनीय उपस्थिति की तरह . वे अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थित होते हैं. सच्चे मित्र अलग-अलग रास्ते चुनने के बाद भी एक-दूसरे से दूर नहीं होते . हम जो कहते हैं मित्र बहुत ध्यान से सुनता है . मित्र वह भी सुन लेता है जो हम कह नहीं पाते . मित्रता की भाषा में शब्द नहीं होते,सिर्फ़ अर्थ होते हैं.जब सारी दुनिया हमारा साथ छोड़ देती है,तब भी वह सहायता के लिये अपना हाथ आगे बढाता है . वह हमारा हाथ थामता है और हमारे दिल की थाह पा लेता है . सच्चा मित्र परीक्षा नहीं लेता — स्पष्टीकरण नहीं मांगता — भरोसा करता है. जब हम खुद पर भरोसा खो चुके होते हैं,मित्र तब भी हम पर भरोसा करता है .मित्र हमारे जीवन की ’रेसिपी’ का सबसे महत्वपूर्ण अवयव होते हैं, उनके बिना जीवन स्वादहीन है . मित्र जीवन का नमक होते हैं . हमारे जीवन की इमारत की मजबूत आधारशिला .
मित्रता अह्लाद की कहानी है और आंसुओं की भी . जब हम खुश होते हैं तो मित्र का मन-मयूर खिल उठता है . और जब हम दुःख से विकल होते हैं तो हमारे आंसुओं का नमक मित्र को बेचैन करता है और वह हमारे दुखों के खिलाफ़ दुर्ग-दीवार बन जाता है . मित्र बुरे दिनों की पतवार होते हैं और अच्छे दिनों का संगीत . खलील जिब्रान ने ठीक ही लिखा है कि ’मित्रता अवसर नहीं,बल्कि हमेशा एक मधुर उत्तरदायित्व है.’ सच्चे मित्र प्रतिदान की प्रत्याशा के बिना भी आपका रक्षा-कवच होते हैं . हम सब एक पंख वाले देवदूत हैं,मित्र हमारा दूसरा पंख होते हैं . मित्र हमारे भीतर से सर्वश्रेष्ठ का उत्खनन और निष्कर्षण करते हैं. वे हमारे सपनों को उड़ान देते हैं और हमारी कल्पनाओं को मुक्त आकाश . वे हमारे सपनों के संरक्षक होते हैं .
मित्र के बिना जीवन वैसा ही है जैसे सूर्य के बिना संसार . मित्र का एक पर्यायवाची सूर्य भी है . मित्र हमारे जीवन में प्रकाश का स्रोत हैं .जितना अधिक अंधेरा समय होगा मित्रता का सूरज उतनी तेजी से चमकेगा . मित्र हमारे जीवन का इन्द्रधनुष हैं. हमारे जीवन की बगिया के सबसे सुवासित पुष्प . मैत्री के उद्यान को अनुचित प्रत्याशाओं और अविश्वास की गर्म हवाओं से बचाना चाहिये तथा उसे भरोसे के भुरभुरे संस्पर्श,समझदारी के प्रकाश और आत्मीयता के निर्मल जल से पोषित करना चाहिए . साथ बिताए गए समय की आत्मीय स्मृतियां और मित्रों के साझा सुख-दुःख मैत्री की यात्रा का पाथेय होते हैं . इसलिये मैत्री के इस सफ़र को हमारा आत्मीय अवधान मिलना चाहिए तथा मैत्री-संबंध को बहुत जतन से सहेजना और समुचित समादर से सराहना चाहिए .
मैत्री के लिये हमें अपने मन के द्वार हमेशा खुले रखने चाहिए . अज़नबी भी प्रतीक्षारत मित्र साबित हो सकते हैं . आखिर हर एक मित्र एक दिन हमारे लिये अज़नबी ही था . मित्र वही है जो हमारे कदम से कदम मिलाकर हमारे साथ चले . अल्बेर कामू की भाषा में कहें तो :
” Don’t walk in front of me, I may not follow .
Don’t walk behind me, I may not lead .
Walk beside me and be my friend . ”
मित्र हमारे व्यक्तित्व का विकास करते हैं और परिष्कार में सहायक होते हैं . वे एक-दूसरे के पूरक होते हैं . मनोवेत्ता कार्ल जुंग कहते हैं,”दो व्यक्तित्वों का मिलन दो रासायनिक पदार्थों के सम्पर्क की तरह होता है,यदि प्रतिक्रिया होती है तो दोनों रूपान्तरित होते हैं .” चूंकि मित्र एक-दूसरे को बदलते हैं . एक-दूसरे को अच्छे और बुरे रूप में प्रभावित करते हैं. इसी बिंदु पर सदाचारी मित्रों की संगत महत्वपूर्ण हो उठती है . शायद इसीलिए समाज में व्यक्ति अपने साथ से — अपने मित्रों से — पहचाना जाता है .
सच्ची मित्रता अनमोल होती है . बाइबल(ओल्ड टेस्टामेंट) में कहा गया है,” Faithful friends are beyond price: No amount can balance their worth .” मित्र हमारी सबसे बड़ी सम्पदा होते हैं . ईश्वर का सबसे सुन्दर उपहार . इसीलिये तो कहा गया है :
“Friendship, a peculiar boon of heaven
The nobel mind’s delight and pride
To men and angels only given
To all the lower world denied .”
आइए मैत्री के सूर्य को नेह का जल अर्पित करें और उसके तमोहारी तेज का अंश ग्रहण करें. आमीन !
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*(बहुत दिनों से ब्लॉग पर कुछ नहीं लिखा था. सभी मित्र इससे दुखी और आहत थे,विशेषकर अफ़लातून भाई. यह पोस्ट उन्हें समर्पित करता हूं.)
मई 16, 2010 को 9:19 पूर्वाह्न |
समकाल द्वारा चौपट्स्वामी का प्रसाद सतत मिले , प्रभु ! सप्रेम,
मई 16, 2010 को 9:41 पूर्वाह्न |
अल्वेयर कामू की भाषा उधार लूं, तो हम साथ साथ चलेंगे चौपटस्वामी! अपनी कलम साथ रखना!
मई 16, 2010 को 10:08 पूर्वाह्न |
वाया अफलातून जी की पोस्ट आई ..आपको ब्लोगिंग में सक्रीय देख कर अच्छा लगा.
मई 16, 2010 को 2:36 अपराह्न |
जिनके लिए लिखा है ऊ भी त पढ़ें !!
मई 16, 2010 को 4:21 अपराह्न |
बात पते की है… आलोचना/असहमति के लिए पर्याप्त सम्मान दिखा पाना कठिन काम है पर यही हमारी नजर में चरित्र का सही लिटमस टेस्ट है।
ज्ञानजी की बात मुँह छिपाकर कही बात नहीं थी इसलिए उसके ईमानदार होने पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए…
दरअसल हिन्दी ब्लॉगरी की नींव कुछ ज्यादा ही साधुवादी कीचड़ पर जमी है… पर बदलेगा, समय बदलेगा।
मई 16, 2010 को 4:53 अपराह्न |
स्वागत है एक लम्बे अरसे बाद. जारी रहें अब.
मई 17, 2010 को 12:37 पूर्वाह्न |
आलोचना और बुराई करने में फर्क होता है, इसे आपने अच्छी तरह स्पष्ट किया। आपको इतने दिनों बाद लिखते देखकर अच्छा लगा।
मई 17, 2010 को 1:51 पूर्वाह्न |
[…] चौपटस्वामी द्वारा अपने चिट्ठे समकाल पर लिखी लम्बी पोस्ट […]
मई 17, 2010 को 1:56 पूर्वाह्न |
वाह! क्या बात है। चलिये इसी बहाने लिखना शुरू हुआ।
मित्रता के बहाने ये अच्छा लगा पढ़ना हिंदी चिट्ठाकारी हिंदी समाज के पुराने कुएं में लगा नया रहट है. रहट की डोलचियों में पानी तो उसी समाज का है . उस बंद समाज की समस्याएं ही हिंदी चिट्ठाकारी की भी समस्याएं हैं. समाज बदलेगा,तभी चिट्ठाकारी का स्वरूप बदलेगा.
चेले-चपाटी के बारे में कल सोच रहा था कि दुनिया में हर व्यक्ति दूसरे को अपने जैसा बनाने का प्रयास करता है। अगर चेले ज्यादा हुये तो गुरु को अपने जैसा ही बना के छोड़ते हैं।
मित्रता पर नोट्स सुन्दर हैं। देखिये ज्ञानजी साथ चलने भी लगे। बहुत स्मार्ट हैं! 🙂
मई 17, 2010 को 2:13 पूर्वाह्न |
Mere sawalo ka jawab dene aap bhee taiyar rahiye. Ye sab shabdik mulamme bazee ab sweekary nahee
jo gaali galoch karane wale gunde bhee sakriy kar rakhe hain unakee sahayat lenge ye kathit bade bloger ?
(@ गिरीश बिल्लोरे : मैं आपकी बात समझा नहीं,तब भी जवाब के लिए तैयार रहूंगा . )
मई 17, 2010 को 2:36 पूर्वाह्न |
आप के पूरा आलेख ,साथ ही मसिजीवी जीऔर लवली से सहमति है , आप लौटे बधाई..
मई 17, 2010 को 2:41 पूर्वाह्न |
सहज, सुन्दर और सामयिक प्रसंग.
मई 17, 2010 को 2:47 पूर्वाह्न |
ज्ञानजी के माध्यम से आपके ब्लोग का पता चला.. बेहद दमदार पोस्ट है.. आपकी कही गयी बाते समझ मे आती है और मेरा भी वही मानना है..
मसिजीवी से भी सहमत हू और उनकी आखिरी लाईन के लिये ’आमीन’ कहूगा.. 🙂
मई 17, 2010 को 3:00 पूर्वाह्न |
मुझे लगता है कि मुगालते पाले ही रहना चाहिए ……नहीं ?
आशा है ! …….. बिना नाम लिए भी स्तरीय बात कहने का यह तरीका जल्दी जल्दी देखने को मिलेगा !
हाँ एक और बात पूछना चाहूँगा …
ब्लोग्गरी और नेट्वर्किंग आपस में क्या व्युत्कामानुपाती हैं ?
मई 17, 2010 को 4:31 पूर्वाह्न |
ब्लॉग-जगत में आपका स्वागत है. हिंदी की सेवा में हमारे पीछे-पीछे चलें.
(@सागर : अब आप आ गए हैं तो ज़रूर चलेंगे आपके पीछे-पीछे, हम तो प्रतीक्षा कर रहे थे.)
मई 17, 2010 को 4:56 पूर्वाह्न |
मित्र बुरे दिनों की पतवार होते हैं और अच्छे दिनों का संगीत–साथ लिए जा रही हूँ
मई 17, 2010 को 6:29 पूर्वाह्न |
ऐसी पोस्ट से मन को शांति मिलती है….आभार
मई 17, 2010 को 6:34 पूर्वाह्न |
“हिंदी समाज मूलतः हिपोक्रिसी में गले तक धंसा ढोंगी समाज है”
सच!!!
मई 17, 2010 को 6:50 पूर्वाह्न |
बहुत अच्छा लगा बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़कर. मित्रता पर बहुत बढ़िया टीप.
सागर ‘हिंदीसेवी’ से ज्यादा हिंदी की सेवा तो सागर खैय्यामी कर रहे हैं. फिर भी हम ‘हिंदीसेवी’ जी के साथ है…सॉरी पीछे हैं.
मई 17, 2010 को 9:09 पूर्वाह्न |
मित्रों के बीच यह विवाद नहीं था, न है और न हो सकता है। पर जरूरी नहीं कि मित्रों के प्रशंसक भी मित्र हों। यह विवाद उन्हीं के बीच था। लग रहा था जैसे चाशनी में किसी ने दूध डाला हो और मैला ऊपर आ रहा हो।
मई 17, 2010 को 12:29 अपराह्न |
आह…क्या बात कही आपने….आत्मा प्रसन्न हो गयी….
कोटिशः आभार ….इस सद्प्रयास और अद्वितीय पोस्ट के लिए…
मई 17, 2010 को 12:45 अपराह्न |
कृपया सुधार कर पढ़ें :
काश, ऎसा सुलझाव उन्हें भी दिखे, जो इसे देखना ही नहींचाहते ।
अब आपकी पिछली सभी पोस्ट पढ़ूँगा,
ब्लॉगिंग विधा में ऎसा उत्कृष्ट गद्य कम ही पढ़ने को मिलता है ।
परन्तु मॉडरेशन द्वारपाल से मतभेद के चलते टिप्पणियाँ न दे पाऊँगा ।
अनन्त शुभकामनायें ।
मई 18, 2010 को 2:53 अपराह्न |
@ प्रवीण त्रिवेदी
बिना नाम लिए भी स्तरीय बात कहने का यह तरीका जल्दी जल्दी देखने को मिलेगा!
अरे! अभी तक देखा नहीं आपने?
मई 19, 2010 को 9:06 पूर्वाह्न |
nice
जून 5, 2010 को 8:06 पूर्वाह्न |
इस बहाने मित्र और मित्रता पर एक ललित निबंध पढने को मिला.
जुलाई 7, 2010 को 12:14 अपराह्न |
आज दिनांक 7 जुलाई 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी इस पोस्ट का दूसरा हिस्सा जीवन का इन्द्रधनुष शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए यहां दैनिक जनसत्ता
पर क्लिक कीजिए। किसी प्रकार की असुविधा होने पर मुझे मेल कीजिए मैं आपको स्कैनप्रति भेज सकूंगा।
जून 22, 2011 को 12:25 अपराह्न |
[…] – चौपटस्वामी युगों बाद जगे। चौपटस्वामी यानी श्री प्रियंकर […]