नवीनता का ज्वार अपने समूचे वेग से विश्वविद्यालयों, अनुसंधान संस्थानों से कारखानों और कार्यालयों तक, बाजार और जन-संचार माध्यमों से हमारे सामाजिक सम्बंधों तक, समुदाय से घरों तक आ पहुंचा है । हमारी निजी जिन्दगी में अपनी गहरी पैठ बनाते हुए यह परिवार नामक इकाई पर अभूतपूर्व असर डालेगा ।
परिवार को समाज का असाधारण ‘शॉक अब्सॉर्बर’ कहा गया है — ऐसा स्थान जहां संसार से अपने संघर्ष के पश्चात लुटे-पिटे और खरोंच खाये व्यक्ति शरण के लिये लौटते हैं । ऐसा स्थान जो निरंतर अस्थिरता से भरे वातावरण में एक स्थिर बिन्दु है । जैसे-जैसे अति औद्योगिक क्रांति घटित हो रही है, यह ‘शॉक अब्सॉर्बर’ स्वयं आघातों की चपेट में है ।
सामाजिक समालोचक उत्तेजित होकर परिवार के भविष्य के बारे में अटकलें लगा रहे हैं । ‘द कमिंग वर्ल्ड ट्रान्सफ़ॉर्मेशन’ के लेखक फर्डीनेंड लुंडबर्ग कहते हैं कि परिवार ‘सम्पूर्ण विलोपन के कगार पर’ है । मनोविश्लेषक विलियम वुल्फ के अनुसार “बच्चे के पालन-पोषण के पहले या दूसरे साल को छोड़ दें तो परिवार समाप्त हो चुका है ।’ निराशावादी यह तो कहते रहते हैं कि परिवार विलुप्त होने की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं पर यह नहीं बताते कि परिवार का स्थान कौन-सी इकाई लेगी ।
इसके विपरीत परिवार के प्रति आशावादी यह विश्वास व्यक्त करते हैं कि परिवार चूंकि हमेशा रहा है, अत: हमेशा रहेगा । कुछ तो यहां तक कहते हैं कि परिवार का स्वर्ण युग आने वाला है । वे इस सिद्धांत के पक्षधर हैं कि जैसे-जैसे अवकाश के क्षण बढ़ेंगे, परिवार अधिकाधिक समय साथ बिताएंगे और सहभागी गतिविधियों में अधिकाधिक संतुष्टि प्राप्त करेंगे ।
अधिक सयाना दृष्टिकोण यह है कि कल की उथल-पुथल और अनिश्चितता ही लोगों को परिवार से और गहरे जुड़ाव के लिए बाध्य करेगी । अल्बर्ट आइन्सटाइन कॉलेज ऑव मेडिसिन में मनोचिकित्सा के प्रोफेसर डॉ. इर्विन एम. ग्रीनबर्ग कहते हैं, ‘लोग टिकाऊ ढांचे के लिए विवाह करेंगे।’ इस दृष्टिकोण के अनुसार परिवार परिवर्तन के तूफान में लंगर की भांति व्यक्ति की ‘पोर्टेबल रूट्स’ — वहनीय जड़ों– के रूप में काम करता है। लब्बोलुआब यह कि जितना अधिक क्षणभंगुर और नवीन वातावरण होगा परिवार का महत्व उतना अधिक बढता जाएगा ।
हो सकता है इस वाद-विवाद के दोनों पक्षकार गलत साबित हों । क्योंकि भविष्य जितना दिखता है उससे अधिक खुला है । परिवार न तो गायब होंगे और न ही स्वर्णिम युग में प्रवेश करेंगे । सम्भव है –और यही ज्यादा सम्भव लगता है — कि परिवार टूट जाएं, बिखर जाएं और फिर अजीबोगरीब और नए रूपों में पुन: गठित हों ।
आगे आने वाले दशकों में परिवार की मूल अवधारणा पर नई प्रजनन प्रौद्योगिकी का व्यापक प्रभाव पड़ेगा । अब ‘प्रोग्राम’ करके यह तय करना आसान हो जाएगा कि पैदा होने वाले बच्चे का लिंग क्या हो, उसमें कितनी बुद्धि या ‘आइ क्यू’ हो, उसका चेहरा-मोहरा कैसा हो या उसके व्यक्तित्व में कौन-कौन सी विशेषताएं हों । भ्रूण प्रतिरोपण, परखनली में विकसित बच्चे, एक गोली खाकर जुड़वा या तीन या उससे भी अधिक बच्चों के जन्म की गारंटी, बच्चों को जन्म देने के लिए ‘बेबीटोरियम’ में जाकर भ्रूण खरीदना आदि इतना सहज होगा कि अब भविष्य को देखने के लिए किसी समाजशास्त्री या परम्परागत दार्शनिक की नहीं, बल्कि कवि या चित्रकार की आंखों की आवश्यकता होगी ।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, विशेषकर प्रजनन जैविकी में हुई प्रगति थोड़े ही समय में परिवार और उसके उत्तरदायित्वों के बारे में प्रचलित सभी परंपरागत विचारों को चकनाचूर करने में सक्षम है । जब बच्चे प्रयोगशाला के जार में उपजाए जा सकेंगे तब मातृत्व की धारणा का क्या होगा और समाज में स्त्रियों की ‘सेल्फ इमेज’ का क्या होगा । जिन्हें प्रारंभ से ही यह सिखाया जाता है कि उनका प्राथमिक कार्य मानवजाति का प्रजनन और उसका संवर्धन करना है ।
अब तक बहुत कम समाजविज्ञानियों का ध्यान इस ओर गया है । मनोचिकित्सक वाइत्जेन के अनुसार, जन्म का चक्र “अधिकांश स्त्रियों में एक प्रमुख रचनात्मक जरूरत को पूरा करता है .. अधिकांश स्त्रियों को जन्म दे सकने की अपनी क्षमता पर गर्व होता है… गर्भवती स्त्री को महिमा-मंडित करता हुआ जो विशिष्ट प्रभामंडल है, उसका वर्णन बहुतायत से पूर्व व पश्चिम दोनों के कला व साहित्य में मिलता है ।”
वाइत्जेन प्रश्न करते हैं कि मातृत्व के इस गौरव का क्या होगा जब स्त्री के बच्चे वस्तुत: उसके नहीं होंगे, बल्कि किसी अन्य स्त्री के आनुवंशिक रूप से ‘श्रेष्ठ’ डिम्ब से लेकर उसके गर्भाशय में प्रतिरोपित किए गए होंगे । यदि और कुछ नहीं तो हम मातृत्व के रहस्यानुभव का हनन करने वाले हैं ।
न केवल मातृत्व, बल्कि पितृत्व की धारणा भी आमूलचूल परिवर्तित होगी, क्योंकि वह दिन दूर नहीं जब एक बच्चे के दो से अधिक जैविक माता-पिता होंगे ।
जब एक महिला अपने गर्भाशय में ऐसे भ्रूण को धारण करेगी जिसे किसी अन्य महिला ने अपनी कोख में सिरजा हो, तो यह कहना मुश्किल हो जाएगा कि बच्चे की मां कौन है और पिता कौन है ?
जब कोई दंपति भ्रूण खरीदेंगे, तब ‘पेरेंटहुड’ जैविक नहीं, कानूनी मुद्दा बन जाएगा । अगर इन कार्रवाइयों को कठोरता से नियन्त्रित नहीं किया गया तो यह बेतुकी और भोंडी कल्पना की जा सकती है कि एक दम्पति भ्रूण खरीद रहे हैं और उसे परखनली में विकसित कर रहे हैं और फिर पहले भ्रूण के नाम पर दूसरा खरीद रहे हैं, मान लीजिये किसी ट्रस्ट फ़ंड के लिये । ऐसी स्थिति में उनके पहले बच्चे के बाल्यकाल में ही उन्हें वैध दादा या दादी का दर्जा मिल जायेगा । इस तरह की नातेदारी के सम्बंधों को बताने के लिये हमें एक पूर्णत: नई शब्दावली गढ़नी होगी ।
और यदि भ्रूण विक्रय के लिये उपलब्ध हो तो क्या कोई कॉरपोरेशन उन्हें खरीद सकेगी? क्या वह दस हज़ार भ्रूण खरीद सकेगी? क्या वह उन्हें पुन: बेच सकेगी? यदि कोई कॉरपोरेशन नहीं तो क्या कोई गैर-व्यापारिक अनुसन्धान प्रयोगशाला ऐसा कर सकेगी? यदि हम जीवित भ्रूणों के क्रय-विक्रय लग जाएं तो क्या हम एक नये किस्म की गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं? जल्दी ही हमें ऐसे ही दुस्वप्नसदृश सवालों पर बहस करनी होगी।
क्रमशः …