तुम थे हमारे समय के राडार
तुम थे हमारे ही तेजस रूप
हमारी चेतना की लौ
हमारी बेचैनियों की आंख
हमारा सधा हुआ स्वर
हमारा अगला कदम।
जब राजनीति व्यापार में बदल रही थी
और सब अपनी अपनी कीमत लगाने में लगे थे
तुम ढूंढ़ते रहे
राख में दबी हुई चिनगारियां
तिनका तिनका जुटाते रहे
विकल्प का र्इंधन
यह अकेलापन ही था
तुम्हारा अनूठापन।
तुममे था धारा के विपरीत चलने का साहस
नक्कारखाने में बोलते रहने का धीरज
जब सब चुप थे
ज्ञानी चुप थे पंडित चुप थे
समाज के सेवक चुप थे
जनता के नुमाइंदे चुप थे
तुम उठाते रहे सबसे जरूरी सवाल
क्योंकि तुम भूल नहीं सके
जनसाधारण का दैन्य
कालाहांडी का अकाल।
तुम थे हमारे समय के राडार
बताते रहे किधर से आ रहे हैं हमलावर
कहां जुटे हैं सेंधमार
कहां हो रहे हैं खेत खलिहानों
जंगलों खदानों के सौदे
कहां बन रहे हैं
तुम्हारे अधिकार छीनने के मसौदे
किन शब्दों की आड़ में छिपे हैं षड्यंत्र
किधर से आ रही हैं घायल आवाजें
कहां घिरा है जनतंत्र
कहां है गरीबों की लक्ष्मी कैद
देखो ये रहे गुलाम दिमागों के छेद।
सब कुछ विदा नहीं होता
बहुत कुछ रह जाता है
जैसे संघर्ष में तपा हुआ विचार
दिख जाती है एक उंगली
अन्याय की जड़ों की तरफ इशारा करती
बार बार चली आती है
हमें पुकारती हुई एक पुकार
कि विकल्पहीन नहीं है दुनिया
पर गढ़ने होंगे क्रांति के नए औजार
जाना होगा पुरानी परिभाषाओं के पार।
— राजेंद्र राजन
(सामयिक वार्ता,सितंबर 2012 से साभार)
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