चौपटस्वामी की चौपट कविता
साहित्यानुरागी
बाबा छाप या एक-सौ बीस
डालकर देसी पत्ता
चुभलाते-चबाते हुए
— कचर-कचर
पीक इतै-उतै थूकते
बगराते हुए
— पचर-पचर
चेलों की जमात से लगातार
बोलते-बतियाते हुए
— कचर-पचर
वे सुन रहे हैं कवि की कविता
अंगुली से चूना चाटते हुए
दोहरे हुए जाते हैं आनन्द में
बोलते हुए, ‘लचर-लचर’ ।
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जुलाई 4, 2008 को 7:32 पूर्वाह्न |
waah,kamal ki kavita hai.Bahut badhiya likha hai……
जुलाई 4, 2008 को 7:39 पूर्वाह्न |
स्वामीजी का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा- ‘फचर-फचर’ का कहीं प्रयोग नहीं हो सका है.
जुलाई 4, 2008 को 7:44 पूर्वाह्न |
बहुत ख़ूब, स्वामीजी कुछ चेहरे सामने आ गए
अगस्त 29, 2008 को 8:53 पूर्वाह्न |
चौपट कविता भी बहुत कुछ कह गयी।
जनवरी 29, 2009 को 4:25 अपराह्न |
वाह-वाह-वाह-वाह……..कहने से रूक ही नहीं पा रहा….इत्ती अच्छी कविता लिख डाली ………!!