जोकर

निलय उपाध्याय की एक कविता

 

जोकर

 

सबसे पहले किसे जलील करते हैं जोकर ?

खुद को ।

 

उसके बाद किसे जलील करते हैं ?

समाजियों और नर्तकों को ।

 

और उसके बाद ?

 

उसके बाद

बहुत आक्रामक हो जाती है जोकर मुद्रा

वे हंसते हुए उतार लेते हैं

देवताओं के कपड़े ।

 

जो जानते हैं अश्लीलता की ताकत

और समाज में

उसे सिद्ध करने की कला

सिर्फ़ जोकर नहीं होते ।

 

*****

( नंदकिशोर नवल व संजय शांडिल्य द्वारा संपादित काव्य संकलन ‘संधि-वेला’ से साभार )

 

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2 Responses to “जोकर”

  1. बोधिसत्व Says:

    बेहद अच्छी कविता है…..

  2. ज्ञानदत्त पाण्डेय Says:

    गदर! चुन के निकाली है यह निलय उपाध्याय की कविता।
    सच में कोई जोकर जोकर नहीं होता। हंसते हुये अपने कोर में साडिज्म तहियाये रहता है।

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