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भविष्य के परिवार बकलम टॉफ़लर – 3

नवम्बर 19, 2007

 

 भविष्य के समाचार पत्रों में युवा विवाहित युगलों को संबोधित ऐसे विज्ञापन देखने को मिलेंगे :  

 ‘ मातृत्व और पितृत्व के बोझ से क्यों दबें ? हमें अपने शिशु को उत्तरदायी और सफल वयस्क के रूप में बड़ा करने का अवसर दें । प्रथम श्रेणी के व्यावसायिक-परिवार का प्रस्ताव : पिता की उम्र 39 , मां की 36, दादी की 67 । चाचा और चाची, उम्र 30, साथ रहते हैं, अंशकालिक स्थानीय रोजगार में संलग्न । चार बच्चों वाली इकाई में   6 से 8 वर्ष के एक  बच्चे के लिए स्थान उपलब्ध है । सरकारी मानकों से बेहतर सुव्यवस्थित आहार । सभी वयस्क बाल विकास और प्रबंधन में प्रमाणपत्रधारी हैं । जैव माता-पिता को निरंतर मेल-जोल की अनुमति । टेलीफोन संपर्क की इजाजत । बच्चा ग्रीष्मकालीन अवकाश जैव माता-पिता के साथ बिता सकता है । धर्म, कला, संगीत के प्रोत्साहन हेतु विशेष व्यवस्था । कम से कम पांच वर्ष का अनुबंध । अधिक विवरण के लिए लिखें । ‘

 सामुदायिक परिवार में एक बिल्कुल अलग विकल्प दिखाई देता है । जैसे-जैसे समाज में  अस्थायित्व की वजह से एकाकीपन और अजनबीपन बढ़ता जाएगा, समूह विवाह के कई रूपों का प्रचलन  बढ़ने का अनुमान है । मनोविज्ञानी बी.एफ स्किनर द्वारा ‘वाल्डेन टू’ में और उपन्यासकार  रॉबर्ट रिमर द्वारा ‘द हैराद एक्सपेरीमेंट एण्ड प्रोपोजीशन 31’ में किए गए वर्णन के आधार पर गढ़े हुए ‘कम्यून’ जगह-जगह दिखाई देने लगे हैं । रिमर तो गम्भीरता से ‘कॉरपोरेट परिवार’ को कानूनी मान्यता देने का प्रस्ताव रखते हैं , जिसमें तीन से छह वयस्क एक नाम अडॉप्ट करेंगे, साथ-साथ रहेंगे और साझे रूप से बच्चों का पालन-पोषण करेंगे, तथा कुछ आर्थिक व कर संबंधी सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए कानूनी रूप से  शामिलात रहेंगे ।

 भविष्य में एक और प्रकार की पारिवारिक इकाई के अनुयायियों के बढ़ने की सम्भावना है, इसे ‘जेरिऐट्रिक्स कम्यून’ — वृद्धों का समुदाय — नाम दे सकते हैं । यह सहचारिता और सहयोग की साझी तलाश में एक-दूसरे के निकट आये वयोवृद्ध लोगों का सामूहिक विवाह होगा ।
ज्यों-ज्यों समलैंगिकता की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ती जाएगी, हमें ऐसे समलिंगी विवाहों पर आधारित परिवार भी मिलने लगेंगे जिनमें जोड़ीदार बच्चे गोद लेंगे। काम संबंधी वर्जनाओं के शिथिल होने तथा बढ़ती समृद्धि के फलस्वरूप सम्पति के अधिकारों का महत्व घटने से बहुविवाह का दमन असंगत समझा जाएगा और बहुविवाह पर प्रतिबंध क्रमश: शिथिल होते जाएंगे ।

 चूंकि मानवीय संबंध अधिक अस्थाई और अल्पकालिक होते जा रहे हैं, प्रेम की खोज और अधिक उन्मादपूर्ण हो गई है । पर लौकिक प्रत्याशायें  हैं  कि बदलती रहती हैं । चूंकि पारम्परिक विवाह जीवन-पर्यन्त प्रेम के वादे को पूरा करने में अधिकाधिक असमर्थ  साबित हो रहा है, अत: हम अस्थायी विवाहों की जनस्वीकार्यता का पूर्वानुमान कर सकते हैं । इस प्रकार के विवाह में युगल को विवाह के बंधन में बंधने के पहले  ही यह पता होता है कि यह संबंध अल्पकालिक होगा ।

 इस अस्थायित्व के युग में, जिसमें मानव के सभी संबंध, पर्यावरण के साथ उसके सभी जुड़ाव बहुत अल्पकालिक होते जा रहे हैं, धारावाहिक विवाह — कई अस्थायी विवाहों की श्रंखला– एकदम उपयुक्त हैं । विवाह का यह प्रतिरूप आनेवाले दिनों में मुख्य धारा में होगा । परीक्षण विवाह , मान्यताप्राप्त पूर्व-विवाह, तीन से 18 महीने के परिवीक्षाधीन विवाह — कुछ अन्य नए प्रकार के प्रायोगिक विवाह होंगे जो टॉफलर के अनुसार भविष्य में आजमाये जाएंगे ।

 अति-औद्योगिक क्रांति मानव को उन कई बर्बरताओं से मुक्ति दिलाएगी जिनका जन्म कल और आज के प्रतिबंधक और अपेक्षाकृत चुनावरहित परिवार-प्रकारों से हुआ था । यह क्रांति प्रत्येक व्यक्ति को  अभूतपूर्व स्वतंत्रता उपलब्ध करायेगी । पर यह इस स्वतंत्रता की मनमानी कीमत भी वसूल करेगी ।

 

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                     ( टॉफ़लर की पुस्तक ‘फ्यूचर शॉक’   के आधार पर )  

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आपोन काजे अचोल होले चोलबे ना, भाई चोलबे ना …

नवम्बर 15, 2007

यह एक   स्वतःस्फूर्त महारैली थी . और तदुपरांत एक ऐतिहासिक जनसमावेश .

कोलकाता की भाषा में कहें तो ‘महामिछिल‘ .

यूं तो कोलकाता को ‘मिछिलकेजुलूसों के — शहर के रूप में जाना जाता है . और सबके लिए अपना ‘मिछिल’  होता है ‘महामिछिल’ .

पर इस महाजुलूस की बात ही कुछ और थी . बिना किसी राजनैतिक पार्टी के आह्वान के, सिर्फ़ बुद्धिजीवियों की पुकार पर, यह आम नागरिकों का स्वतःस्फूर्त समावेश था .

किसी को लाया नहीं गया था,किसी को मुफ़्त खिलाया नहीं गया था , किसी को कुछ दिया नहीं गया;बल्कि उनसे कुछ लिया ही गया —  नंदीग्राम के संकटग्रस्त — मुसीबतज़दा — किसानों की यथासम्भव मदद के लिए यथासामर्थ्य धनराशि .

और वही मध्यवर्ग दे रहा था जिसे न जाने कितनी बार हम और आप उसकी जीवनशैली और लिप्सा के लिए बुरा-भला कह चुके हैं .

दुपट्टे फैलाए युवतियां और साड़ी-चादरें फैलाए युवक घूम रहे थे और उपस्थित जनसमुदाय अपने हिसाब से दे रहा था, यथासामर्थ्य दस-बीस-पचास-सौ-पांचसौ रुपए .

कुछ तो था इस बार की पुकार में और इस बार की हुंकार में . जो इससे पहले देखने में नहीं आया .

किसी भी राजनैतिक पार्टी का झंडा नहीं . कोई राजनैतिक नारा नहीं . बेचैनी और उद्वेग से भरा अपार जन-सैलाब . अपने मुखर मौन से अपराधी राजनीति को आतंकित करता सा .

जुलूस कॉलेज स्क्वायर से शुरू हुआ और धर्मतल्ला पर स्थित मेधा पाटकर के मंच के निकट पहुंच कर एक बहुत बड़े समावेश में बदल गया .

नंदीग्राम की वीभत्स घटना और उस पर राज्य के मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया से नाराज़ लगभग अस्सी हज़ार से एक लाख विचलित किंतु आत्म-नियंत्रित शांतिकामी जनता का स्वतःस्फूर्त जमावड़ा . 

साथ में थे उनके प्रिय लेखक-चित्रकार-गीतकार-फिल्मकार-गायक-नाट्यकर्मी-डॉक्टर-वैज्ञानिक-वकील-विद्यार्थी गण .

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के  विरल उदाहरण को छोड़ दें तो,  सत्ता हस्तगत करने की दलीय राजनीतिक आकांक्षा से बुलाए गए समावेशों से  परे यह अनूठा जनसमावेश था .

प्रतुल मुखोपाध्याय,पल्लब कीर्तनिया,रूपम और नचिकेता जैसे गायक जनगीत गा रहे थे और हज़ारों लोग उनकी आवाज़ से आवाज़ मिला रहे थे — दुहरा रहे थे . दिल-दिमाग पर छा जाने वाला अद्भुत दृश्य .

इसे महाश्वेता देवी,मेधा पाटकर,जोगेन चौधरी,विभास चक्रवर्ती आदि समाजचेता बुद्धिजीवियों ने सम्बोधित किया .

महाश्वेता देवी ने कहा कि ‘इस समय किसी का अलग कोई नाम नहीं है, सबका नाम है नंदीग्राम’ .

मेधा पाटकर ने कहा कि ‘नंदीग्राम की चिंगारी आग का रूप लेगी. विकास के नाम पर राज्य सरकार झूठ पर झूठ बोले जा रही है. ‘ उन्होंने कहा कि माकपा के कुछ-सौ समर्थक प्रभावित हुए हैं जबकि अत्याचार-पीडित ग्रामवासियों की संख्या दस से पन्द्रह हज़ार है .

इस महाजुलूस/जनसमावेश में शामिल थे महाश्वेता देवी,शंख घोष, सांओली मित्रा,मृणाल सेन,शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय,नवनीता देबसेन, जॉय गोस्वामी,अपर्णा सेन, शुभप्रसन्न, जोगेन चौधरी,विभास चक्रवर्ती,मनोज मित्रा,पूर्णदास बउल,सोहाग सेन,गौतम घोष, ऋतुपर्ण घोष,ममता शंकर, कौशिक सेन, अंजन दत्त,संदीप रॉय, पल्लब कीर्तनिया, नचिकेता, रूपम, परम्ब्रत चटर्जी आदि प्रमुख संस्कृतिकर्मी .

एक ओर जहां मृणाल सेन का आना और उषा उत्थुप का आना और गाना समरशॉल्ट जैसा आश्चर्य था, वहीं अभिनेत्री सोहिनी सेनगुप्ता हल्दर का शामिल होना परिवार के बीच वैचारिक अंतर और व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो सकता है अथवा सोची-समझी रणनीति भी .

उनके पतिदेव और नाट्यकर्मी गौतम हालदार आज एक सरकार-समर्थक बुद्धिजीवियों के शांतिबहाली जुलूस का संयोजन करेंगे जिसमें अभिनेता सौमित्र चटर्जी,लेखक सुनील गंगोपाध्याय,पवित्र सरकार,सुबोध सरकार, मल्लिका सेनगुप्ता,जादूगर पीसी सरकार (जूनियर),नाट्यकर्मी उषा गांगुली, शोभा सेन,गायक अमर पाल और अजीजुल हक आदि के शामिल होने की बात है .

खैर कठिन समय में ही यह पहचान होती है कि आप किसकी ओर हैं — आपकी प्रतिबद्धता किधर है .

एक लाख लोगों का यह विरोध क्या गुल खिलाएगा ?  क्या  यह  ‘मोमेन्टम’ लम्बे समय तक जारी रह सकेगा या छीज जाएगा ?  मुझे नहीं पता .

क्या यह बंगाल की राजनीति या सीपीएम के चरित्र में कुछ बदलाव लाएगा ? मैं सचमुच संदेह के घेरे में हूं .

मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य तथा सीपीएम नेता बिनय कोनार, श्यामल चक्रवर्ती,बिमान बोस और सुभाष चक्रवर्ती के हाल तक के बयानों से लगता तो नहीं कि उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा या खेद या खिन्नता जैसा कोई मनोभाव उपजा हो .

बल्कि इसका उल्टा सोचने के  कारण ज्यादा हैं .

तब आशा की किरण कहां है ?

आशा की एक किरण तो वे छोटे सहयोगी दल — आरएसपी और फ़ॉर्वर्ड ब्लॉक हैं जिन्होंने सीपीएम के इस कारनामे से अलग खड़े होना और दिखना तय किया है .

क्षिति गोस्वामी जैसे वाम मोर्चा के मंत्री हैं जिन्होंने मंत्री पद छोडने की इच्छा जाहिर करते हुए त्यागपत्र देने की घोषणा की है .

उनका यह कहना भी पर्याप्त साहस का काम है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य नरेन्द्र मोदी के रास्ते पर चल रहे हैं .

बस इस काले और सर्द समय में इतनी-सी ही उम्मीद बची है जिसके सहारे हमें एक सुहानी सुबह की प्रतीक्षा है .

और यही प्रतीक्षा उन्हें भी है जो नंदीग्राम में एक साल के लम्बे सूर्यास्त में सिर्फ़ बम और बंदूकों की आवाज़ सुन पा रहे थे .

सूर्योदय हुआ नहीं है . सूर्योदय की प्रतीक्षा है .

आमीन!

 

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कवि की आंखें

नवम्बर 13, 2007

शंख घोष और अपर्णा सेन

कवि की बेधक आंखें सात परदों के भीतर का सच देख सकती हैं . कवि की जुबान पर बसती है सच्चाई . कवि के भीतर झंकृत होता है जन-गण का मन . झलकता है लोक का आलोक और उसके दुख का धूसर रंग . उसकी वाणी कहती है धरती की पीड़ा,बेजुबानों के दुख —  गूंगी हो चुकी भाषा का संताप . 

कवि कहता है वह सब जो होता है होशियारों के लिए अकथनीय  . दुनियादारों के लिए अवर्णनीय .  बिल्ली के  पैने दांतों की हिंसक चमक देख कर एक कवि ही कह सकता है बिल्ली के नरभक्षी बाघ बन जाने की कहानी . एक कवि की दृष्टि गला सकती है ज्ञानगुमानी और अत्याचारी शासक के लौह-कपाटों को . उसकी सात्विक ललकार  से  सफ़ेद पड़  जाता है अहंकारी और उद्धत शासक की शिराओं का समूचा रक्त . कवि की आंखों में बसा है समता और स्वतंत्रता महान सपना .

कवि के लिए लाल झंडा प्रतीक है चेतना का,आतंक का नहीं . लाल झंडे से जुड़ा था एक सपना —  मानव की मुक्ति का सपना .  क्या हुआ उस सपने का ?  कहां गिरवी रखा है वह सपना ? बदले में क्या पाया ?  कल तक साथ रहे वे तपे हुए ‘विज़नरी’ साथी  कहां गए ?  वे कौन हैं जिनके हाथ में दिख रहा है लाल झंडा ?

यही सब  सवाल  छुपे हैं कवि की प्रश्नाकुल और आहत आंखों में . फ़िलहाल जवाब  कहीं नहीं  दिखता .

पर कवि तो प्रजापति है इस अपार काव्य संसार का . उसके पास तो सपना है — एक नई दुनिया का .

उत्तर भी होंगे ही . आशा की डोर छूटी है .  टूटी नहीं है .

 

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भविष्य के परिवार बकलम टॉफ़लर – 2

नवम्बर 12, 2007

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 तीव्र सामाजिक परिवर्तन तथा वैज्ञानिक क्रांति को डांवांडोल करनेवाला सुपर-इण्डस्ट्रियल व्यक्ति परिवार के नए रूपों को अपनाने पर विचार करेगा तथा विविधरंगी पारिवारिक व्यवस्थाओं को आजमाएगा । इसका श्रीगणेश वे वर्तमान व्यवस्था से छेड़छाड़ द्वारा करेंगे। …पूर्व-औद्योगिक परिवारों में न केवल बहुत सारे बच्चे होते थे, वरन उन परिवारों में कई  अन्य आश्रित यथा दादा-दादी, चाचा-चाची तथा चचेरे भाई-बहन आदि संबंधी भी होते थे । इस तरह के विस्तृत परिवार धीमी गति वाले कृषि-आधारित समाज़ों के लिए उपयुक्त थे । परंतु ऐसे ‘अचल’ परिवारों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना मुश्किल होता था, अत: औद्योगिकता की मांग के अनुसार विस्तृत परिवार अपना अतिरिक्त भार त्याग कर तथाकथित ‘न्यूक्लियर’ परिवार के रूप में उभरे, जिसमें माता-पिता और कम बच्चों पर बल दिया जाने लगा । नई शैली का यह अधिक गतिशील परिवार औद्योगिक देशों का मानक आदर्श बन गया ।

 परंतु आर्थिक-प्रौद्योगिकीय विकास का अगला चरण अति-औद्योगिकता का होगा । इसमें और अधिक गतिशीलता की आवश्यकता होगी । अत: हम यह आशा कर सकते है कि भविष्य के लोग संतानहीन रहकर परिवार को कारगर बनाने की प्रक्रिया को एक-कदम आगे ले जाएंगे । यह आज अजीब सा लग सकता है, परंतु जब प्रजनन का संबंध उसके जैविक आधार से टूट जाएगा तो युवा और अधेड़ दम्पतियों के संतानहीन रहने की संभावना बढ़ जाएगी । आज स्त्री व पुरुष अक्सर ‘कैरियर’ के प्रति प्रतिबद्धता तथा बच्चों के प्रति प्रतिबद्धता के द्वन्द्व के मध्य विभाजित हैं । इसलिए भविष्य में बहुत से दम्पति बच्चों के पालन-पोषण के काम को सेवानिवृत्ति तक स्थगित कर देंगे और इस समस्या से बच निकलेंगे । सेवानिवृत्ति के पश्चात बच्चों को जन्म देने वाले परिवार भविष्य की मान्य सामाजिक संस्था होंगे ।

 यदि कुछ ही परिवार बच्चों का लालन-पालन करेंगे तो वे बच्चे उनके ही क्यों होने चाहिए ? ऐसी व्यवस्था क्यों न हो जिसमें व्यावसायिक दक्षता वाले माता-पिता दूसरों के लिए बच्चों का लालन-पालन करें ?

वर्तमान व्यवस्था चरमरा रही है और हम अति-औद्योगिक क्रांति से हकबकाये हुए हैं । युवा अपराधियों की संख्या में जबरदस्त बढोतरी हुई है, सैकड़ों युवा घर छोड़कर भाग रहे  हैं  और प्रौद्योगिक-समाज़ों के विश्वविद्यालयों में छात्र  उत्पात मचा रहे  हैं ।

 यों युवाओं की समस्या से निपटने के कई अधिक बेहतर तरीके हैं, पर व्यावसायिक ‘पेरेन्टहुड’ को भी  निश्चित रूप से आजमाया जाएगा, क्योंकि यह विशेषज्ञता की ओर समाज के समग्र प्रयास के साथ पूर्णत: मेल खाता है ।

 प्रचुरता और विशेषज्ञता से सुसज्जित लाइसेन्सधारी व्यावसायिक माता-पिताओं की उपलब्धता  पर कई जैविक माता-पिता न केवल खुशी-खुशी अपने बच्चे उन्हें सौंप देंगे वरन् वे इसे बच्चे के ‘बहिष्करण’  के बजाय, स्नेह के एक बरताव के रूप में देखेंगे ।

 

क्रमशः …

भविष्य के परिवार बकलम टॉफ़लर – 1

नवम्बर 8, 2007

 नवीनता का ज्वार अपने समूचे वेग से विश्वविद्यालयों, अनुसंधान संस्थानों से कारखानों और कार्यालयों तक, बाजार और जन-संचार माध्यमों से हमारे सामाजिक सम्बंधों तक, समुदाय से घरों तक आ पहुंचा है । हमारी निजी जिन्दगी में अपनी गहरी पैठ बनाते हुए यह परिवार नामक इकाई पर अभूतपूर्व असर डालेगा ।

 परिवार को समाज का असाधारण ‘शॉक अब्सॉर्बर’ कहा गया है — ऐसा स्थान जहां संसार से अपने संघर्ष के पश्चात लुटे-पिटे और खरोंच खाये व्यक्ति शरण के लिये लौटते हैं । ऐसा स्थान जो निरंतर अस्थिरता से भरे वातावरण में एक स्थिर बिन्दु है । जैसे-जैसे अति औद्योगिक क्रांति घटित हो रही है, यह     ‘शॉक अब्सॉर्बर’  स्वयं आघातों की चपेट में है ।

 सामाजिक समालोचक उत्तेजित होकर परिवार के भविष्य के बारे में अटकलें लगा रहे हैं । ‘द कमिंग वर्ल्ड ट्रान्सफ़ॉर्मेशन’   के लेखक फर्डीनेंड लुंडबर्ग   कहते हैं कि   परिवार   ‘सम्पूर्ण विलोपन के कगार   पर’  है । मनोविश्लेषक विलियम वुल्फ के अनुसार “बच्चे के पालन-पोषण के पहले या दूसरे साल को छोड़ दें तो परिवार समाप्त हो चुका है ।’ निराशावादी यह तो कहते रहते हैं कि परिवार विलुप्त होने  की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं पर यह नहीं बताते कि परिवार का स्थान कौन-सी इकाई लेगी ।
 
 इसके विपरीत परिवार के प्रति आशावादी यह विश्वास व्यक्त करते हैं कि परिवार चूंकि हमेशा रहा है, अत: हमेशा रहेगा । कुछ तो यहां तक कहते हैं कि परिवार का स्वर्ण युग आने वाला है । वे इस सिद्धांत के पक्षधर हैं कि जैसे-जैसे अवकाश के क्षण बढ़ेंगे, परिवार अधिकाधिक समय साथ बिताएंगे और सहभागी गतिविधियों में अधिकाधिक संतुष्टि प्राप्त करेंगे ।

 अधिक सयाना दृष्टिकोण यह है कि कल की उथल-पुथल और अनिश्चितता ही लोगों को परिवार से और गहरे जुड़ाव के लिए बाध्य करेगी । अल्बर्ट आइन्सटाइन कॉलेज ऑव मेडिसिन में मनोचिकित्सा के प्रोफेसर डॉ. इर्विन एम. ग्रीनबर्ग कहते हैं, ‘लोग टिकाऊ ढांचे के लिए विवाह करेंगे।’ इस दृष्टिकोण के अनुसार परिवार परिवर्तन के तूफान  में  लंगर की भांति व्यक्ति की ‘पोर्टेबल रूट्स’ — वहनीय जड़ों– के रूप में काम करता है। लब्बोलुआब यह कि जितना अधिक क्षणभंगुर और नवीन वातावरण होगा परिवार का महत्व उतना अधिक बढता जाएगा ।

 हो सकता है इस वाद-विवाद के दोनों पक्षकार गलत साबित हों । क्योंकि भविष्य जितना दिखता है उससे अधिक खुला है । परिवार न तो गायब होंगे और न ही स्वर्णिम युग में प्रवेश करेंगे । सम्भव है –और यही ज्यादा सम्भव लगता है — कि परिवार टूट जाएं, बिखर जाएं और फिर अजीबोगरीब और नए रूपों में पुन: गठित हों ।

आगे आने वाले दशकों में परिवार की मूल अवधारणा पर नई प्रजनन प्रौद्योगिकी का व्यापक प्रभाव पड़ेगा । अब ‘प्रोग्राम’ करके यह तय करना आसान हो जाएगा कि पैदा होने वाले बच्चे का लिंग क्या हो, उसमें कितनी बुद्धि या ‘आइ क्यू’ हो, उसका चेहरा-मोहरा कैसा हो या उसके व्यक्तित्व में कौन-कौन सी विशेषताएं हों । भ्रूण प्रतिरोपण, परखनली में विकसित बच्चे, एक गोली खाकर जुड़वा या तीन या उससे भी अधिक बच्चों के जन्म की गारंटी, बच्चों को जन्म देने के लिए ‘बेबीटोरियम’ में जाकर भ्रूण खरीदना आदि इतना सहज होगा कि अब भविष्य को देखने के लिए किसी समाजशास्त्री या परम्परागत दार्शनिक की नहीं, बल्कि कवि या चित्रकार की आंखों की आवश्यकता होगी ।

 विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, विशेषकर प्रजनन जैविकी में हुई प्रगति थोड़े ही समय में परिवार और उसके उत्तरदायित्वों के बारे में प्रचलित सभी परंपरागत विचारों को चकनाचूर करने में सक्षम है । जब बच्चे प्रयोगशाला के जार में उपजाए जा सकेंगे तब मातृत्व की धारणा का क्या होगा और समाज में स्त्रियों की ‘सेल्फ इमेज’ का क्या होगा । जिन्हें प्रारंभ से ही यह सिखाया जाता है कि उनका प्राथमिक कार्य मानवजाति का प्रजनन और उसका संवर्धन करना है ।

 अब तक बहुत कम समाजविज्ञानियों का ध्यान इस ओर गया है । मनोचिकित्सक वाइत्जेन के अनुसार, जन्म का चक्र “अधिकांश स्त्रियों में एक प्रमुख रचनात्मक जरूरत को पूरा करता है .. अधिकांश स्त्रियों को जन्म दे सकने की अपनी क्षमता पर गर्व होता है… गर्भवती स्त्री को महिमा-मंडित करता हुआ जो विशिष्ट प्रभामंडल है, उसका वर्णन बहुतायत से पूर्व व पश्चिम दोनों के कला व साहित्य में मिलता है ।”

 वाइत्जेन प्रश्न करते हैं कि मातृत्व के इस गौरव का क्या होगा जब स्त्री के बच्चे वस्तुत: उसके नहीं होंगे, बल्कि किसी अन्य स्त्री के आनुवंशिक रूप से ‘श्रेष्ठ’ डिम्ब से लेकर   उसके गर्भाशय में प्रतिरोपित किए गए   होंगे । यदि और कुछ नहीं तो हम मातृत्व के रहस्यानुभव का हनन करने वाले हैं ।
 न केवल मातृत्व, बल्कि पितृत्व की धारणा भी आमूलचूल परिवर्तित होगी, क्योंकि वह दिन दूर नहीं जब एक बच्चे के दो से अधिक जैविक माता-पिता होंगे ।

 जब एक महिला अपने गर्भाशय में ऐसे भ्रूण को धारण करेगी जिसे किसी अन्य महिला ने अपनी कोख में सिरजा हो, तो यह कहना मुश्किल हो जाएगा कि बच्चे की मां कौन है और पिता कौन है ?

 जब कोई दंपति भ्रूण खरीदेंगे, तब ‘पेरेंटहुड’ जैविक नहीं, कानूनी मुद्दा बन जाएगा । अगर इन कार्रवाइयों को कठोरता से नियन्त्रित नहीं किया गया तो यह बेतुकी और भोंडी कल्पना की जा सकती है कि एक दम्पति भ्रूण खरीद रहे हैं  और उसे परखनली में विकसित कर रहे हैं और फिर पहले भ्रूण के नाम पर दूसरा खरीद रहे हैं, मान लीजिये किसी ट्रस्ट फ़ंड के लिये । ऐसी स्थिति में उनके पहले बच्चे के बाल्यकाल में ही उन्हें वैध दादा या दादी का दर्जा मिल जायेगा । इस तरह की नातेदारी के सम्बंधों को बताने के लिये हमें एक पूर्णत: नई शब्दावली गढ़नी होगी ।

और यदि भ्रूण विक्रय के लिये उपलब्ध हो तो क्या कोई कॉरपोरेशन उन्हें खरीद सकेगी?  क्या वह दस हज़ार भ्रूण खरीद सकेगी? क्या वह उन्हें पुन: बेच सकेगी? यदि कोई कॉरपोरेशन नहीं तो क्या कोई गैर-व्यापारिक अनुसन्धान प्रयोगशाला ऐसा कर सकेगी? यदि हम जीवित भ्रूणों के क्रय-विक्रय लग जाएं तो क्या हम एक नये किस्म की गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं? जल्दी ही हमें ऐसे ही दुस्वप्नसदृश सवालों पर बहस करनी होगी।

 

क्रमशः …

दो सभ्यताओं का दुलारा बेटा

नवम्बर 5, 2007

 

 1911 — 2006

 

वे एक सांस्कृतिक प्रकाश-स्तम्भ थे……जिन्होंने अरबी साहित्य को विश्व मानचित्र पर प्रतिष्ठित किया . प्रबोधन और सहिष्णुता के मूल्य को अपने लेखन के माध्यम से  रूपायित किया .

नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले अरबी लेखक नज़ीब महफ़ूज़ मिस्र(इजिप्ट) की राजधानी काहिरा की पृष्ठभूमि पर लिखी अपनी उपन्यास-त्रयी ‘कायरो ट्रिलजी’  के अंग्रेज़ी अनुवाद के बाद ही अरबी साहित्य की दुनिया के बाहर चर्चा में आ पाए . उन्नीस सौ बावन में लिखे गये ये उपन्यास : पैलेस वॉक(बैनुल-कसरैन),पैलेस ऑव डिज़ायर(कसरुस्शौक) तथा सुगर स्ट्रीट(अस्सुकरिय) , उन्नीस सौ छप्पन और सत्तावन में छपे और नवें दशक में इनका अंग्रेज़ी अनुवाद सामने आया . ये उपन्यास  बीसवीं सदी के शुरुआती दौर के मिस्र के इतिहास में रची-बसी अल-सईद अब्द अल-जवाद  के संयुक्त परिवार कहानी है .इन उपन्यासों में एक मुस्लिम व्यवसायी परिवार का लेखा-जोखा तो है ही मिस्र के तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक जीवन पर भी प्रबोधनकारी व्याख्याएं और विमर्श देखने को मिलता है .  इन उपन्यासों के प्रकाशन के बाद-से ही उनकी तुलना चार्ल्स डिकेंस और दोस्तोवस्की जैसे महान उपन्यासकारों से की जाने लगी .

1959 में प्रकाशित पुस्तक औलादो हार्रतुना (चिल्ड्रेन ऑफ गेबेलावी) की वजह से महफ़ूज़ विवादों के घेरे में आ गए . एक अखबार में धारावाहिक रूप से प्रकाशित इस पुस्तक को इस्लामी कानून का उल्लंघन करने और धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में यह कह कर ‘बैन’ कर दिया गया कि इसमें अल्लाह और उनके प्रोफ़ेट के बारे में अनुपयुक्त अन्योक्तिपरक  कथाएं  हैं . बाद में यह उपन्यास लेबनान में प्रकाशित हुआ और इसका अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया .

उन्नीस सौ चौरानबे में एक धार्मिक उन्मादी ने छुरा मार कर महफ़ूज़ को बुरी तरह घायल कर दिया .  सात सप्ताह तक अस्पताल में उनका इलाज चला और गर्दन की नसों के कट जाने से उनकी देखने और सुनने की शक्ति कमजोर हो गई . इसके बावजूद  वे यथा-सामर्थ्य लिखते रहे .

गत वर्ष अगस्त माह की तीस तारीख को चौरानबे वर्ष की आयु में अल्सर की बीमारी से काहिरा में नजीब महफ़ूज़ का  इन्तकाल हो गया .

नजीब महफ़ूज़ ने न केवल अरबी भाषा को नया उन्मेष दिया,उसमें एक किस्म  के  भाषिक-नवाचार को प्रतिष्ठा दी, बल्कि यथार्थवाद, प्रतीकात्मकता और अन्य नए प्रयोगों द्वारा अरबी उपन्यास में आधुनिकता के तत्व को समाहित किया . उन्होंने नई पीढी के  लेखकों के लिए एक ऐसी राह तैयार की जिस पर चल कर अरबी उपन्यास विश्व-साहित्य में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान  पा सका .

महफ़ूज़ के बारे में और अधिक जानने के लिए कृपया रवि रतलामी के ब्लॉग रचनाकार पर जाकर विजय शर्मा का यह बेहतरीन लेख पढें जो  ठट्ट की ठट्ट पोस्टों के अम्बार में दबा रह गया : 

http://rachanakar.blogspot.com/2007/04/blog-post_12.html

 

गत वर्ष  महफ़ूज़ का एक उपन्यास ‘मिडक एली’ पढने का मौका मिला था और उस उपन्यास को पढ कर मैं विस्मित रह गया था .  भारत के किसी पुराने शहर के गली-कूचों  और मिस्र की राजधानी काहिरा की गलियों में मुझे कोई अंतर दिखाई नहीं दिया . इस अर्थ में वे मुझे भारतीय अनुभवों  के बहुत नजदीक लगे .

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(बहुत-से लोगों ने तस्वीर पर कयास लगाया था . ज्ञान जी ही सत्य के कुछ नजदीक निकले जिन्होंने इसे किसी साहित्यकार का चित्र बताया था . बाकी सबको यह चित्र आई.के. गुजराल साहब का लग रहा था .)