उपमन्यु चटर्जी के अंग्रेज़ी उपन्यास इंग्लिश ऑगस्ट का नायक अगस्त्य सेन समकालीन भारत की ऐसी युवा पीढी का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी अंग्रेज़ी शिक्षा ने उसे अपने समाज और जीवन से काट कर अपने ही देश में अजनबी बना दिया है . अब कम-से-कम भाषा के स्तर पर यह दूरी पाटने की एक जोरदार मुहिम चल निकली है . हिंदी में अंग्रेज़ी की अनपेक्षित और अवांछनीय घालमेल से एक नए किस्म की संकर भाषा के जन्म पर विद्वज्जन बलिहारी हो रहे हैं . और ऐसा करते समय वे भाषाओं के मध्य अंतर्क्रिया,उदार ग्रहणशीलता, अनुकूलन और समंजन जैसे पदबंधों और संप्रत्ययों का भी बेहद होशियारी से हवाला देते चलते हैं .
हिंदी बोलते समय अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल कोई नई घटना नहीं है . इसकी पृष्ठभूमि में है हमारा औपनिवेशिक अतीत . निस्संदेह यह हमारी मौखिक अभिव्यक्ति का हिस्सा रहा है . परंतु अब जब सांस्कृतिक प्रभुत्ववाद के भूमंडलीय अभियान के तहत इसे बाकायदा एक भाषा का दर्जा देकर महिमामंडित किया जा रहा हो और इसे नए युग की भाषा के रूप में प्रचारित किया जा रहा हो तो न केवल इस भाषा के स्वरूप-संरचना और प्रभाव पर विचार करना ज़रूरी हो गया है वरन समूचे सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है .
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि तीसरी दुनिया सांस्कृतिक रूप से अत्यंत समृद्ध है . इसकी भाषा,साहित्य,संगीत,कला,वेशभूषा,खान-पान एवं स्थापत्य आदि की सांस्कृतिक समृद्धि और विविधता इसके नागरिकों की आवश्यकताओं,आकांक्षाओं और रचनात्मकता से विकसित हुई है . यह न केवल उनकी स्थानीय स्थितियों के लिए अनुकूल है बल्कि उनकी आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं के लिए भी आवश्यक है .
संचार के साधनों पर कुंडली मारकर बैठी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कुदृष्टि इन देशों की भाषा,संस्कृति और जीवन पद्धति पर है . अतः बहुत ही आक्रामक ढंग से जीवनशैली को प्रभावित किया जा रहा है . परम्परागत सांस्कृतिक वैविध्य और सामुदायिक सहभागिता को नष्ट कर एक मानकीकृत उपभोक्ता संस्कृति लादी जा रही है जो मात्र तीसरी दुनिया के अभिजात्य वर्ग और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ही फ़ायदा पहुंचाएगी .
न केवल एक एकरूप उपभोक्ता-उन्मुख बाज़ारू संस्कृति को लादने के सारे सरंजाम जुटा दिये गये हैं वरन समाज के एक बड़े वर्ग,विशेषकर युवाओं को परम्परागत मूल्यबोध से काटकर खतरनाक हद तक सांस्कृतिक बिलगाव पैदा कर दिया गया है . भाषा की अर्थ-परम्परा तथा उसकी अन्तर्वस्तु से अलगाव इसी सांस्कृतिक पार्थक्य की कार्यसूची का एक हिस्सा है .
जातीय दुनिया का यह आत्मविसर्जन — यह लोप — खान-पान से लेकर भाषा के क्षेत्र तक फैल गया है . जीवन की पहली पाठशाला — घर — में न मिठाइयां बनती हैं, न भाषा . दोनों बाहर से आ रही हैं . जब भाषा घर और समाज में नहीं बनेगी तो बाज़ार में बनेगी . दुर्भाग्य से बन भी रही है .
इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के चौंधियाने वाले रंगीन दृश्य-श्रव्य विज्ञापनों ने भाषा को बाज़ार में इस्तेमाल की चीज़ में बदल दिया है . हिंग्रेज़ी उर्फ़ लॉलीपॉप हिंदी हिंदुस्तान के अपरिपक्व विज्ञापन जगत के हाथों का ऐसा ही एक खिलौना है जिसे बाज़ार के लिए, बाज़ार के द्वारा, बाज़ार में गढा जा रहा है और उपग्रह टेलीविज़न के जरिये हिंदुस्तान के दूर-दराज़ के गांवों,ढाणियों और कस्बों में ‘नए आदमी’ की भाषा के रूप में — सामाजिक गतिशीलता की भाषा के रूप में — प्रचारित किया जा रहा है .
यह एक छद्म भाषा है जिसका एकमात्र उद्देश्य एक जीवंत भाषा को नज़रबंद करना है .
इस बात से भला किसे इंकार हो सकता है कि ‘भाषा के क्षेत्र में शुद्धतावाद एक यूटोपियाई संकल्पना है .’ यह भी सही है कि भाषाएं आपसी अंतर्क्रिया और ग्रहणशीलता से ही समृद्ध होती हैं . यह एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है . शब्द एक भाषा से दूसरी भाषा में बेरोकटोक आते-जाते हैं और अनायास ही भाषियों के भाषिक संस्कार का हिस्सा हो जाते हैं . परंतु यह कार्य किसी दबाव से या किसी कार्यसूची के तहत योजनाबद्ध रूप से नहीं किया जा सकता . ऐसे असफल प्रयासों के उदाहरण सामने हैं .
राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने ऐसा ही एक प्रयास किया था . आचार्य शुक्ल ने ठीक ही लक्षित किया है कि ‘राजा शिवप्रसाद खिचड़ी हिंदी का स्वप्न ही देखते रहे कि भारतेन्दु ने स्वच्छ हिंदी की शुभ्र छटा दिखाकर लोगों को चमत्कृत कर दिया .’ सहज स्वाभाविक रूप से दूसरी भाषाओं के जितने शब्द हिंदी में आएं उनका स्वागत है . वे वरेण्य हैं . पर उनका सायास आरोपण अन्ततः भाषा के स्वाभाविक प्रवाह को बाधित करना है .
भाषा के साथ खिलवाड़ के खिलाफ़ ऐसी ही एक चेतावनी हमें रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने दी थी . उन्होंने कहा :
“भाषा आत्मीयता का आधार होती है, वह मनुष्य की जैविक प्रवृत्ति से ज्यादा गहरी चीज़ होती है . … भाषा नाम की जो चीज़ है उसका जीवन-धर्म होता है . उसको सांचे में ढालकर, मशीन में डालकर फ़र्माइश के अनुसार नहीं गढा जा सकता . उसके नियम को स्वीकार करके ही उसका पूरा फल मिलता है . उसके विरुद्ध दिशा में चलने पर वह बांझ हो जाती है .”
परंतु वर्तमान इतना लुभावना है कि हमने परम्परा की ओर पीठ कर ली है .
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो हिंदी में अंग्रेज़ी के मिश्रण से बनी खिचड़ी भाषा हिंग्रेज़ी के जन्म के बीज संभवतः ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेज़ अधिकारियों से बातचीत की कोशिश करते हिंदुस्तानी खानसामाओं की बटलरी हिंदी में छुपे रहे होंगे .
लेखन की दुनिया में मिश्रित भाषा के प्रयोग का पहला उदाहरण गोवानी कवि जोसेफ़ फ़ुरतादो (१८७२-१९४७) की कविताओं में मिलता है,जिन्होंने हास्य उत्पन्न करने के लिए ‘पिजिन इंग्लिश’ का प्रयोग किया :
“ स्लाय रोग , द ओल्ड ईरानी
हैज़ मेड ए लाख
बाय मिक्सिंग मिल्क विद ‘पानी’ ।”
बॉलीवुड की फ़िल्मी पत्रकारिता में नवीनता और चटपटापन लाने के लिए देवयानी चौबाल और शोभा डे ने इसका उपयोग किया तथा पत्रकारिता में इसका श्रेय द इलस्ट्रेटेड वीकली के तत्कालीन सम्पादक खुशवंत सिंह को जाता है .
इस संदर्भ में यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि भाषिक संकरता के बावज़ूद यह हिंदी में अंग्रेज़ी की नहीं,बल्कि अंग्रेज़ी में हिंदी की मिलावट थी,वह भी आटे में नमक जितनी. भारतीय भाषाओं के विराट समाज की उपस्थिति में बोली जाने वाली अंग्रेज़ी के लिए यह बहुत अस्वाभाविक भी नहीं था .
इस संस्कारित भाषा में इसकी एक प्रचारक देवयानी चौबाल की मृत्यु पर इसके दूसरे झण्डाबरदार खुशवंत सिंह की श्रद्धांजलि की बानगी गौर फ़रमाइए :
” देवयानी’ज़ ग्रेटेस्ट कंट्रीब्यूशन वॉज़ द डिलाइटफ़ुल वे शी मिक्स्ड बॉम्बे उर्दू(हिंदी) विद इंग्लिश . फ़्रॉम हर आई लर्न्ट ‘लाइन मारना’ , ‘भाव’ एण्ड ‘लफ़ड़ा’ . एण्ड नाउ शी हरसेल्फ़ इज़ ‘खलास’ .”
हिंदी पर अंग्रेज़ी का प्रभाव पहले वाक्य-विन्यास तक सीमित था . तत्पश्चात शहरी और कस्बाई मध्यवर्ग की आत्मसम्मानहीनता और मानसिक शिथिलता के चलते बात अंग्रेज़ी शब्दों, विशेषकर संज्ञा और विशेषण,के अबाधित इस्तेमाल तक पहुंची . अब तो स्थिति क्रियापदों के विरूपण तक जा पहुंची है . विज्ञापन जगत तथा इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की अधकचरी हिंदी के साथ अंग्रेज़ी के संयोग से एक अज़ीब-ओ-गरीब कबाइली भाषा प्रचलन में आ रही है .
भारत में अंग्रेज़ी प्रभुवर्ग की भाषा है . विज्ञापन और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर काबिज अधिकांश लोग इसी पृष्ठभूमि से आए हैं . उनका हिंदी ज्ञान न केवल स्तरीय नहीं है,बल्कि बहुत छिछला है .
चूंकि हिंदी एक बड़े उपभोक्ता समाज की भाषा है अतः उसकी उपेक्षा भी संभव नहीं है . ऐसे में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में विज्ञापन तथा संचार माध्यमों के लिए लेखन की कोई स्वस्थ परम्परा विकसित न कर पाने की स्थिति में मिलावटी हिंदी का प्रयोग एक मज़बूरी है . यानी उनकी मज़बूरी इस नई भाषा को गढ रही है .
इससे भी दुखद तथ्य यह है कि यह संकर भाषा, अंग्रेज़ी न जानने वाले ऐसे विशाल उपभोक्ता वर्ग को जिसके भाषिक संस्कार भ्रष्ट हो चुके हैं, आत्मतुष्टि का छायाभास देने लगी है .
हिंदी इस विशाल देश के बहुजातीय समाज की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का अखिल भारतीय माध्यम है . विभिन्न भारतीय भाषाओं और बोलियों की शब्द-सम्पदा से अनवरत पोषण पाने वाली हिंदी को आखिर अंग्रेज़ी शब्दों की क्या दरकार है ? भाषा की उदार ग्रहणशीलता और अबाध आदान-प्रदान की वकालत करते हुए जो इस संकर भाषा के पक्षपोषण में लगे हुए हैं, वे यह तथ्य छिपाते हैं कि अंग्रेज़ी शब्द जनबोलियों तथा उर्दू (अरबी-फ़ारसी) के रचे-पचे शब्दों को धकेल कर ही अपनी जगह बना रहे हैं .
सदाबहार वनों की भांति करोड़ों जीवन-रूपों को फलने-फूलने का अवसर देने वाला यह महादेश पस्त हाल है . इसकी भाषा छीज रही है . कोशिकाओं में जीवन रस सूख चला है . लाल रुधिर कणिकाएं कम से कमतर होती जा रही हैं . परम्परा से भाषा का रिश्ता टूट रहा है . हम एक समृद्ध भाषा को काम चलाने की भाषा,मनोरंजन की भाषा और बाज़ार की भाषा में बदलते देखने को अभिशप्त हैं . ऐसी मिलावटी भाषा में जो भावनाशून्य है,निर्मम है तथा जिसमें फुसलाने व बहकाने की असीम क्षमता है . यह ‘भाषा के मातृलोक’ से कटे स्मृतिहीन जन-समुदाय की भाषा है . यह उत्तरदायी नागरिकों की नहीं, विचारशून्य उपभोक्ताओं की भाषा है . बाज़ार की ज़रूरतों तथा संचार माध्यमों के दबाव के परिणामस्वरूप जन्मी यह संकर भाषा, भाषाओं के सुदीर्घ सहसंबंध का वैध प्रतिफलन न होकर घालमेल की अराजकता का अज़ब नमूना है . यह उन भ्रमित अस्मिताओं की बेतुकी भाषा है जो उत्तर-औपनिवेशिक यथार्थ और अंग्रेज़ी के साम्राज्य के साथ पटरी बैठाने की जुगत में हैं .
इस भाषा में कोई गंभीर विमर्श संभव नहीं है . दरअसल यह विचारशीलता का चक्का जाम करने वाली भाषा है . यह भाषा एमटीवी और केंचुकी फ़्राइड चिकन की अमरीकी खुराक पर पली छिन्नमूल श्वेता शेट्टियों और पार्वती खानों की खाने-कमाने की भाषा हो सकती है पर इस महादेश के सांस्कृतिक सरोकार और सामाजिक कारोबार की ‘जातीय’ भाषा नहीं .
भाषा महज अभिव्यक्ति का माध्यम भर है या इसका किसी जाति या समाज के मन-प्राण से, उसकी सामूहिक स्मृति से कोई गहरा और स्थायी रिश्ता होता है ? भाषा के संबंध विच्छेद क्या हमारी चित्तवृत्तियों में भी परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करता है ? आचार्य शुक्ल ने 1912 में ही ‘भाषा की शक्ति’ पर विचार करते हुए नागरी प्रचारिणी पत्रिका के जनवरी अंक में लिखा था :
” भाषा ही किसी जाति की सभ्यता को सबसे अलग झलकाती है, यही उसके,हृदय के भीतरी पुरजों का पता देती है . किसी जाति को अशक्त करने का सबसे सहज उपाय उसकी भाषा को नष्ट करना है .”
होगा ! क्या करें ? सामने तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध है . इसकी पहुंच है,पैसा है . अनगिनत तात्कालिक लाभ हैं . और फिर समय के साथ भाषा तो बदलेगी ही . कब तक ‘मैया कबहुं बढेगी चोटी’ लिखते रहें ? अब तो बच्चों तक को दूध इस तरह पिलाया जाता है :
दूध , दूध ,दूध , दूध
पियो glassful
दूध , दूध ,दूध , दूध
दूध है wonderful
पी सकते हैं रोज़ glassful
दूध , दूध , दूध , दूध
गर्मी में डालो दूध में ice
दूध बन गया very nice
पियो daily once or twice
मिल जाएगा tasty surprise
पियो must in every season
पियो दूध for every reason
रहोगे फिर fit and fine
जिओगे past ninty nine
दूध , दूध , दूध , दूध
चारों ओर मच गया शोर
Give me more
Give me more
दूध , दूध , दूध , दूध
यह भारत के सबसे बड़े और सबसे सफल सहकारिता आंदोलन की भाषा है .
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अगस्त 2, 2007 को 10:51 पूर्वाह्न |
यह काम भला किया।इसे बतौर एक अलग पृष्ट भी दिया जा सकता है।तब इसका शीर्षक और कड़ी मुखपृष्ट पर बनी रहेगी ।
अगस्त 2, 2007 को 11:54 अपराह्न |
भाई पूरी श्रृंखला साँस रोककर पढ़ी, कमाल है, बहुत अच्छा लिखा. मैं तो अनामदास हूँ लेकिन आप क्यों चौपटस्वामी हैं. चौपट नहीं बल्कि जैसा गुजराती में कहते हैं सुपट कर रहे हैं. बहुत आनंद आया, बात अभी ख़त्म नहीं हई है.
लगे रहिए.
नवम्बर 17, 2009 को 6:45 अपराह्न |
डोंट टच माइ गगरिया मोहन रसिया—- यदि आप लोग मुझे इस लोकगीत की सारी पंक्तियाँ लिख भेजें मेरे ईमेल पर तो मुझे आप मेरी माता जी की मुस्कराहट याद दिला देंगे..और यदि कोई सज्जन कहीं से इस लोकगीत को डाउनलोड करने का लिंक भी बता सकें तोह बहूत मेहेरबानी होगी मेरा ईमेल है deepak_singh1@indiatimes.com.
फ़रवरी 14, 2013 को 3:09 अपराह्न |
समझि परै न राधे तोरी बतियाँ ….डोंट टच गगरी मोहन रसिया …
यह संकरण तो सैकड़ों वर्षों से हो रहा है। बाज़ार और समाज की अभिव्यक्ति के के लिए भाषा के कई आयाम उभरते रहे हैं। सौ साल पहले भी ‘डोंट टच गगरी’ एक उपाहासत्मक संकरण ही था। यह भाषा के बदलाव को इंगित करने वाला व्यंग्य ज़रूर था मगर ‘डोंट टच गगरी’ कभी बोला नहीं गया। ये आभासी बदलाव हैं, यथार्थ नहीं बनते। संवेदनशील समाज में चर्चाएँ तो चलती रहनी चाहिए ।