कोलकाता से हाथ-रिक्शा हटाने की अधिसूचना — कोलकाता हैकनी कैरिज बिल — जारी हो गई है . वे दौडते,घंटी बजाते रिक्शेवाले अब इतिहास की वस्तु हो जाएंगे . इतिहास में रुचि रखने वाले लोग बताते हैं कि रिक्शे चीन से आये . कुछ कहते हैं कि जापान से आए . पहले शिमला आए,फिर दार्जिलिंग और कोलकाता आए . मेरी चिंता यह है कि रिक्शा कहीं से भी आया हो, ये रिक्शेवाले कहां जाएंगे . क्या इन्हें बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया जाएगा . प्रश्न चूंकि पंद्रह-बीस हज़ार गरीब-गुरबा की ज़िंदगी से — उनकी आजीविका से — उनके पेट से जुड़ा है,इसलिए प्रश्न बहुत बड़ा है . पुनर्वास की अफ़वाहनुमा भंकस भी जोरों पर है . हम पुनर्वास के गंभीर किस्म के प्रयासों के भी हश्र देख चुके हैं , यहां तो यह उड़ती-उड़ती खबर है .
देश के नये बनते मध्य और उच्च-मध्य वर्ग के लिए यह खबर नाकाबिल-ए-गौर है . वह तो मॉल-मल्टीप्लेक्स-एसईज़ेड के सुखद सपनों में खोया है . उसे कल्पना में रुपया और डॉलर उड़ता हुआ दिख रहा है . रात को सपने में नए-नए मेक की कारें आती हैं जिनमें वह अपने को किसी सुंदर स्त्री के साथ ‘लोंग ड्राइव’ पर जाता देखता है . भारत उसे सिंगापुर होता दिख रहा होता है . उसे यह सोचने की फ़ुरसत ही कहां है कि ये रिक्शेवाले अब क्या करेंगे, कहां जाएंगे . अरे जहां मन करे वहां जाएं . देखते नहीं आना-जाना कितना सुगम और सस्ता होता जा रहा है . ट्रेन के किराये में प्लेन आपको ले जाने को तैयार है .
यह अगस्त का महीना है . देशभक्ति के इस मौसम में हमें थोड़ा इतिहास में लौटना चाहिए . हम १९४७ में आज़ाद हुए . नेहरू ने इसे ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ — ‘नियति से मिलन का दिन’ — कहा . कवियों ने प्रफुल्लित स्वर में गाया :
“आज देश में नई भोर है
नई भोर का समारोह है”
पर जैसा कि होता है, समारोह जल्दी समाप्त हो गया और कठोर यथार्थ ने हमारे सुखद सपनों की अग्नि-परीक्षा लेनी शुरु कर दी . १९५० में हमने अपना संविधान अधिनियमित और अंगीकृत किया . पहले हम लोकतांत्रिक समाजवादी सम्प्रभु गणराज्य कहाये . फिर जल्दी ही हमने इस असुविधाजनक ‘समाजवादी’ शब्द को निकाल फेंका और मिश्रित अर्थव्यस्था की ओर चलते-बढते रहे . और अब तो यह आवारा ग्लोबल पूंजी के नंगे नाच का विकराल समय है जिसे भूमंडलीकरण,उदारीकरण और न जाने किस-किस नाम से पुकारा जा रहा है . ऐसे समय में इन रिक्शाचालकों के बारे में बात करना एक तरह की मूर्खता ही कही जाएगी . पर इधर होशियारों की होशियारी देखते हुए इस देश को कुछ मूर्खों की नितान्त आवश्यकता प्रतीत होती है .
लगभग दो दशक पहले देश के एक अनुभवहीन युवा प्रधानमंत्री ने कोलकाता को ‘डाइंग सिटी’ — मरता हुआ शहर — कहा था . एक हिंसक दुखद त्रासद आतंकवादी हमले में हमारे वे प्रधानमंत्री मारे गये पर यह शहर कोलकाता नहीं मरा . टूटते-बिखरते आधारभूत ढांचे के बावज़ूद यह शहर नहीं मरा तो सिर्फ़ इसलिए कि इसकी आत्मा जीवित-जाग्रत थी . आत्मा का ताप बचा और बना हुआ था .
पर इधर स्थितियां तेजी से बदली हैं . हम कोलकातावासी अन्य महानगरों की तुलना में कोलकाता को लेकर और कोलकाता में अपने को लेकर कुछ शर्मिंदा से हैं . पारम्परिक संस्कृतिबोध की जगह एक नये अर्थबोध ने ले ली है . और यह नया ‘अर्थ’ उर्फ़ ‘टाका’बोध एक नए तरह का — अभिजात्य किस्म का सौन्दर्यबोध — इलीट ऐस्थेटिक्स — पैदा कर रहा है जिसमें इन रिक्शेवालों की कोई जगह नहीं बनती .हम कोलकाता को भारत की सांस्कृतिक राजधानी के स्थान पर एक ‘डिज़ाइनर सिटी’ बनाना चाहते हैं जहां ‘इन्वेस्टर’ आए तो उसकी आंखें धंस कर रह जाएं और वह फ़ंस कर ही जाए .
राज्य की भूमिका के बारे में जितना कम बोला जाए उतना अच्छा . शहर से खटाल हटा दिये जाते हैं ताकि अकर्मण्यता,अक्षमता और अपव्यय की वजह से खस्ताहाल सरकारी डेअरियों का दूध खप सके . रिलाएंस फ़्रेश को प्रश्रय दिया जाता है ताकि ये ठेली-थड़ी-खोमचे वाले ऐसे गायब हो जाएं जैसे कभी इस पृथ्वी पर थे ही नहीं . खुदरा व्यापार के इलाके में वाल्मार्ट और मोटे धन्नासेठों के लिए पलकें बिछाईं जाती हैं बिना इस बात की चिंता किये कि कैसे हमारे पड़ोस के परचूनी दूकानदारों का धंधा ठप्प हो जाएगा और एक बड़ी ‘सप्लाई चेन’ — एक कारगर वितरण व्यवस्था — हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी . किसानों को हटा दिया जाता है ताकि वहां लम्बी-लम्बी जीभ लपलपाते देश के उच्च-मध्यवर्गीय उपभोक्ता के लिए नई-नई कारें बन सकें . और चूंकि कोलकाता के संकरे जनसंकुल रास्तों पर इन कारों के दौड़ने के लिए जगह बनानी है, इसलिए कारों की पहली खेप आने के पहले इन रिक्शेवालों का जाना तो तय था . इस योजना-चक्र या चक्रांत को समझे बिना इस निर्णय को सही-सही नहीं समझा जा सकता .
कुछ लोग इन रिक्शावालों को इस आधार पर भी हटाने के पक्षधर है कि यह अमानवीय है ,ऐसे मानवीय लोगों को अक्सर आठ आने या एक रुपये के लिए इन रिक्शावालों से हुज्जत करते देखा गया है . कुछ आधुनिक लोग शहर की साफ़-सफ़ाई के मद्देनज़र उन्हें हटा देने के पक्षधर हैं .मुझे उदयप्रकाश की कविता का वह सफ़ाईपसंद हत्यारा याद आता है जो सफ़ाई को लेकर बेहद संजीदा था .
आज के उन्सठ साल पहले एक सिरफिरे ने महात्मा गांधी को गोली मार दी थी . पर गांधी मरे नहीं . और मरे इसलिए नहीं क्योंकि गांधी व्यक्ति नहीं एक विचार थे . हटाने वाले निश्चिंत रहें . ये रिक्शेवाले भी नहीं मरेंगे . मरेंगे इसलिए नहीं क्योंकि वे कोलकाता के सौ वर्ष के इतिहास का हिस्सा हैं . उसके ऐतीज्य का अभिन्न अंग . इस शहर की श्रम-संस्कृति का बेहद मानवीय पक्ष .
वे रहेंगे — कोलकाता के पुराने बाशिन्दों की स्मृति में किसी आत्मीय अपने की तरह रहेंगे . जल-निकास की आधी-अधूरी व्यवस्था से जूझते इस शहर में भारी बारिश के दिनों में जब कोई भी कार, कोई भी टैक्सी, कोई भी वाहन आपको जरा-सी भी दूरी पार कराने को तैयार नहीं होगा , तब कमर तक पानी में — मात्र पांच-दस रुपये में आपको इधर से उधर लाते-ले जाते हुए ये रिक्शेवाले आपकी स्मृतियों में ऊभ-चूभ होंगे . पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी .
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