संकर भाषा के जन्म पर सोहर
उर्फ़
डोंट टच माइ गगरिया मोहन रसिया – भाग ३
इस बात से भला किसे इंकार हो सकता है कि ‘भाषा के क्षेत्र में शुद्धतावाद एक यूटोपियाई संकल्पना है .’ यह भी सही है कि भाषाएं आपसी अंतर्क्रिया और ग्रहणशीलता से ही समृद्ध होती हैं . यह एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है . शब्द एक भाषा से दूसरी भाषा में बेरोकटोक आते-जाते हैं और अनायास ही भाषियों के भाषिक संस्कार का हिस्सा हो जाते हैं . परंतु यह कार्य किसी दबाव से या किसी कार्यसूची के तहत योजनाबद्ध रूप से नहीं किया जा सकता . ऐसे असफल प्रयासों के उदाहरण सामने हैं .
राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने ऐसा ही एक प्रयास किया था . आचार्य शुक्ल ने ठीक ही लक्षित किया है कि ‘राजा शिवप्रसाद खिचड़ी हिंदी का स्वप्न ही देखते रहे कि भारतेन्दु ने स्वच्छ हिंदी की शुभ्र छटा दिखाकर लोगों को चमत्कृत कर दिया .’ सहज स्वाभाविक रूप से दूसरी भाषाओं के जितने शब्द हिंदी में आएं उनका स्वागत है . वे वरेण्य हैं . पर उनका सायास आरोपण अन्ततः भाषा के स्वाभाविक प्रवाह को बाधित करना है .
भाषा के साथ खिलवाड़ के खिलाफ़ ऐसी ही एक चेतावनी हमें रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने दी थी . उन्होंने कहा :
“भाषा आत्मीयता का आधार होती है, वह मनुष्य की जैविक प्रवृत्ति से ज्यादा गहरी चीज़ होती है . … भाषा नाम की जो चीज़ है उसका जीवन-धर्म होता है . उसको सांचे में ढालकर, मशीन में डालकर फ़र्माइश के अनुसार नहीं गढा जा सकता . उसके नियम को स्वीकार करके ही उसका पूरा फल मिलता है . उसके विरुद्ध दिशा में चलने पर वह बांझ हो जाती है .”
परंतु वर्तमान इतना लुभावना है कि हमने परम्परा की ओर पीठ कर ली है .
क्रमशः
जुलाई 27, 2007 को 5:13 पूर्वाह्न |
बिल्कुल ठीक. भाषा बहनी चाहिये. बहाव भी गुरुत्व का नियम पालन करता है.
पर ये क्या चीभ-चीभ कर परोस रहे हैं? 🙂
जुलाई 27, 2007 को 6:20 पूर्वाह्न |
सही है । खिलवाड़ के पक्ष में फ़ादर शास्त्री पोंकर गये थे,हाल ही में ।
जुलाई 27, 2007 को 6:29 पूर्वाह्न |
मेरा वोट ज्ञान दादा को
जुलाई 31, 2007 को 8:54 पूर्वाह्न |
@ ज्ञान जी : शिकायत वाज़िब है . आगे ध्यान रखा जाएगा कि भोजन भर पेट मिले .
@ अफ़लातून भाई और अरुण जी : धन्यवाद मालूम होवे .