संकर भाषा के जन्म पर सोहर
उर्फ़
डोंट टच माइ गगरिया मोहन रसिया – भाग २
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि तीसरी दुनिया सांस्कृतिक रूप से अत्यंत समृद्ध है . इसकी भाषा,साहित्य,संगीत,कला,वेशभूषा,खान-पान एवं स्थापत्य आदि की सांस्कृतिक समृद्धि और विविधता इसके नागरिकों की आवश्यकताओं,आकांक्षाओं और रचनात्मकता से विकसित हुई है . यह न केवल उनकी स्थानीय स्थितियों के लिए अनुकूल है बल्कि उनकी आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं के लिए भी आवश्यक है .
संचार के साधनों पर कुंडली मारकर बैठी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कुदृष्टि इन देशों की भाषा,संस्कृति और जीवन पद्धति पर है . अतः बहुत ही आक्रामक ढंग से जीवनशैली को प्रभावित किया जा रहा है . परम्परागत सांस्कृतिक वैविध्य और सामुदायिक सहभागिता को नष्ट कर एक मानकीकृत उपभोक्ता संस्कृति लादी जा रही है जो मात्र तीसरी दुनिया के अभिजात्य वर्ग और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ही फ़ायदा पहुंचाएगी .
न केवल एक एकरूप उपभोक्ता-उन्मुख बाज़ारू संस्कृति को लादने के सारे सरंजाम जुटा दिये गये हैं वरन समाज के एक बड़े वर्ग,विशेषकर युवाओं को परम्परागत मूल्यबोध से काटकर खतरनाक हद तक सांस्कृतिक बिलगाव पैदा कर दिया गया है . भाषा की अर्थ-परम्परा तथा उसकी अन्तर्वस्तु से अलगाव इसी सांस्कृतिक पार्थक्य की कार्यसूची का एक हिस्सा है .
जातीय दुनिया का यह आत्मविसर्जन — यह लोप — खान-पान से लेकर भाषा के क्षेत्र तक फैल गया है . जीवन की पहली पाठशाला — घर — में न मिठाइयां बनती हैं, न भाषा . दोनों बाहर से आ रही हैं . जब भाषा घर और समाज में नहीं बनेगी तो बाज़ार में बनेगी . दुर्भाग्य से बन भी रही है .
इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के चौंधियाने वाले रंगीन दृश्य-श्रव्य विज्ञापनों ने भाषा को बाज़ार में इस्तेमाल की चीज़ में बदल दिया है . हिंग्रेज़ी उर्फ़ लॉलीपॉप हिंदी हिंदुस्तान के अपरिपक्व विज्ञापन जगत के हाथों का ऐसा ही एक खिलौना है जिसे बाज़ार के लिए, बाज़ार के द्वारा, बाज़ार में गढा जा रहा है और उपग्रह टेलीविज़न के जरिये हिंदुस्तान के दूर-दराज़ के गांवों,ढाणियों और कस्बों में ‘नए आदमी’ की भाषा के रूप में — सामाजिक गतिशीलता की भाषा के रूप में — प्रचारित किया जा रहा है .
यह एक छद्म भाषा है जिसका एकमात्र उद्देश्य एक जीवंत भाषा को नज़रबंद करना है .
क्रमशः
जुलाई 26, 2007 को 6:52 पूर्वाह्न |
सच् है जी हम ज्यादा ही उधार खा रहे है वो भी लपक लपक कर..
जुलाई 26, 2007 को 7:17 पूर्वाह्न |
यहां तक तो पूर्ण सहमति. पर “क्रमश:” है तो आगे कॉशस (cautious) रहना पड़ेगा. 🙂
जुलाई 26, 2007 को 9:24 पूर्वाह्न |
@ अरुण : और इस उधारी पर इतराते-इठलाते भी हैं .
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@ ज्ञान जी : पूर्ण सहमति के लिए धन्यवाद! . क्रमशः भी और सतर्कता के बावज़ूद भी सहमति बरकरार रहेगी ऐसी उम्मीद है . और आपकी तो असहमति भी सिर-माथे .
जुलाई 26, 2007 को 9:27 पूर्वाह्न |
सही है. चलते जाइए. इस पर तो कई किताबें लिखने की ज़रूरत है. जमकर लिखिए. हम पढ़ रहे हैं
जुलाई 26, 2007 को 10:49 पूर्वाह्न |
@ अनामदास : भाई अनामदास जी ये बातें इतनी बार और इतने तरीके से कही जा चुकी हैं कि भवानी भाई याद आते हैं :
” कहने में अर्थ नहीं
कहना पर व्यर्थ नहीं
मिलती है कहने में
एक तल्लीनता । ”
बस उसी तल्लीनता को मान देते हुए लिखने की हिमाकत कर रहा हूं .
जुलाई 26, 2007 को 11:33 पूर्वाह्न |
घर की बनी मिठाई और भाषा.. दोनों का बने रहना ज़रूरी है.. इसीलिए देख रहा हूं मिठाई खाना छूट रहा है.. आगे?..