हिंदी इस विशाल देश के बहुजातीय समाज की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का अखिल भारतीय माध्यम है . विभिन्न भारतीय भाषाओं और बोलियों की शब्द-सम्पदा से अनवरत पोषण पाने वाली हिंदी को आखिर अंग्रेज़ी शब्दों की क्या दरकार है ? भाषा की उदार ग्रहणशीलता और अबाध आदान-प्रदान की वकालत करते हुए जो इस संकर भाषा के पक्षपोषण में लगे हुए हैं, वे यह तथ्य छिपाते हैं कि अंग्रेज़ी शब्द जनबोलियों तथा उर्दू (अरबी-फ़ारसी) के रचे-पचे शब्दों को धकेल कर ही अपनी जगह बना रहे हैं .
सदाबहार वनों की भांति करोड़ों जीवन-रूपों को फलने-फूलने का अवसर देने वाला यह महादेश पस्त हाल है . इसकी भाषा छीज रही है . कोशिकाओं में जीवन रस सूख चला है . लाल रुधिर कणिकाएं कम से कमतर होती जा रही हैं . परम्परा से भाषा का रिश्ता टूट रहा है . हम एक समृद्ध भाषा को काम चलाने की भाषा,मनोरंजन की भाषा और बाज़ार की भाषा में बदलते देखने को अभिशप्त हैं . ऐसी मिलावटी भाषा में जो भावनाशून्य है,निर्मम है तथा जिसमें फुसलाने व बहकाने की असीम क्षमता है . यह ‘भाषा के मातृलोक’ से कटे स्मृतिहीन जन-समुदाय की भाषा है . यह उत्तरदायी नागरिकों की नहीं, विचारशून्य उपभोक्ताओं की भाषा है . बाज़ार की ज़रूरतों तथा संचार माध्यमों के दबाव के परिणामस्वरूप जन्मी यह संकर भाषा, भाषाओं के सुदीर्घ सहसंबंध का वैध प्रतिफलन न होकर घालमेल की अराजकता का अज़ब नमूना है . यह उन भ्रमित अस्मिताओं की बेतुकी भाषा है जो उत्तर-औपनिवेशिक यथार्थ और अंग्रेज़ी के साम्राज्य के साथ पटरी बैठाने की जुगत में हैं .
इस भाषा में कोई गंभीर विमर्श संभव नहीं है . दरअसल यह विचारशीलता का चक्का जाम करने वाली भाषा है . यह भाषा एमटीवी और केंचुकी फ़्राइड चिकन की अमरीकी खुराक पर पली छिन्नमूल श्वेता शेट्टियों और पार्वती खानों की खाने-कमाने की भाषा हो सकती है पर इस महादेश के सांस्कृतिक सरोकार और सामाजिक कारोबार की ‘जातीय’ भाषा नहीं .
भाषा महज अभिव्यक्ति का माध्यम भर है या इसका किसी जाति या समाज के मन-प्राण से, उसकी सामूहिक स्मृति से कोई गहरा और स्थायी रिश्ता होता है ? भाषा के संबंध विच्छेद क्या हमारी चित्तवृत्तियों में भी परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करता है ? आचार्य शुक्ल ने 1912 में ही ‘भाषा की शक्ति’ पर विचार करते हुए नागरी प्रचारिणी पत्रिका के जनवरी अंक में लिखा था :
” भाषा ही किसी जाति की सभ्यता को सबसे अलग झलकाती है, यही उसके,हृदय के भीतरी पुरजों का पता देती है . किसी जाति को अशक्त करने का सबसे सहज उपाय उसकी भाषा को नष्ट करना है .”
होगा ! क्या करें ? सामने तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध है . इसकी पहुंच है,पैसा है . अनगिनत तात्कालिक लाभ हैं . और फिर समय के साथ भाषा तो बदलेगी ही . कब तक ‘मैया कबहुं बढेगी चोटी’ लिखते रहें ? अब तो बच्चों तक को दूध इस तरह पिलाया जाता है :
दूध , दूध ,दूध , दूध
पियो glassful
दूध , दूध ,दूध , दूध
दूध है wonderful
पी सकते हैं रोज़ glassful
दूध , दूध , दूध , दूध
गर्मी में डालो दूध में ice
दूध बन गया very nice
पियो daily once or twice
मिल जाएगा tasty surprise
पियो must in every season
पियो दूध for every reason
रहोगे फिर fit and fine
जिओगे past ninty nine
दूध , दूध , दूध , दूध
चारों ओर मच गया शोर
Give me more
Give me more
दूध , दूध , दूध , दूध
यह भारत के सबसे बड़े और सबसे सफल सहकारिता आंदोलन की भाषा है .
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