प्रियंकर
हिंदी बीमार भाषा है कि नहीं, पता नहीं . पर यह बीमारों की भाषा ज़रूर है . पीलिया के मरीज को सारी दुनिया पीली दिखती है . यह अलग बात है कि ठीक होते ही मरीज को दुनिया अपने आप ठीक-ठाक लगने लगती है . साहिबानो! कविता-कहानी से दूर रहें . यह हिंदी और बाज़ार के बीच का आग का दरिया है . हिंदी और बाज़ार के बीच एक पुल बनाएं, बल्कि पुल बन जाएं . हिंदी और बाज़ार के बीच ऐसे परिकम्मा करें जैसे अपने घर से गोवर्धन धाम और करौलीवाली कैला मइया के दरबार तक करते आये हैं . अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें . हिंदी अपने आप स्वस्थ होने लगेगी . इधर सौ-दोसौ वेबसाइटों में हिंदी का संक्रमण हुआ नहीं कि उधर से नौकरियों की मूसलाधार वर्षा होने लगेगी . बाढ़ न आ जाए नौकरियों की तो कहना .
प्रियंकर
नवीन प्रौद्योगिकी के अश्व पर आरोहण आवश्यक है . पर उससे भी ज्यादा ज़रूरी है भाषा के पर्यावरण की रक्षा . भाषा का अपनी जड़ों से — अपनी अर्थ-परम्परा से – जुड़ा रहना . आज हमारी भाषा पीली पड़ती जा रही है,छीजती जा रही है . भाषा की कोशिकाओं में जीवन रस कुछ सूख-सा चला है . चिकित्साविज्ञान की शब्दावली में कहूं तो हमारी भाषा की लाल रुधिर कणिकाएं मरती जा रही हैं . भाषा का हीमोग्लोबिन स्तर लगातार घट रहा है . भाषा का बोलियों से संबंध टूट रहा है और हिंदी ने अपनी बोलियों से पोषक रस पाना बंद कर दिया है .
न केवल हमने ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों से, विशेषकर विज्ञान और प्रौद्योगिकी संबंधी साहित्य से अपनी भाषा को समुचित समृद्ध नहीं किया बल्कि काफ़ी हद तक रचनात्मक साहित्य की भाषा को भी रस-गंधविहीन बना दिया . देशज मुहावरे और व्यंजना का ठाठ अब समाप्तप्राय है .
अविनाश
हिंदी एक बीमार भाषा है। क्योंकि इसका मुल्क बीमार है। अस्सी फीसदी नौजवान हाथ बेकार हैं। प्रोफेसर और दूसरे कमाने वालों को बैंक का ब्याज चुकाना है, वे ट्यूशन पढ़ा रहे हैं, कमाई का अतिरिक्त ज़रिया खोज रहे हैं। वे क्यों पढ़ेंगे किताब? आपकी किताब उन्हें दुष्चक्र से बाहर निकलने का रास्ता नहीं दिखा रही। आप किताबों का मर्सिया गा रहे हैं, आपके मुल्क को तो ठीक-ठीक ये भी नहीं पता कि टेक्स्ट बुक और रामचरितमानस से बाहर भी किताब किसी चिड़िया का नाम है।
प्रियंकर
वे ट्यूशन न कर रहे होते तो कौन-सा रामचरितमानस रच रहे होते। भाई मेरे! वे ट्यूशन पढा रहे हैं, इसीलिए कुछ पेड़ कटने से बचे हुए हैं। कविता की नदी में गाद (सिल्ट) कुछ कम है और पानी अभी भी बह रहा है, भले ही थोड़ा मंथर गति से, तो इसीलिए कि कुछ ज्ञानी लोग कविता लिखने के बजाय ट्यूशन पढा रहे हैं। हम सबकी (और बैंकों की भी) भलाई इसी में है कि वे ट्यूशन पढाते रहें और किस्त समय पर जमा करते रहें। हिंदी भाषा का क्या है उसको तो गरीब-गुरबा बचा ही लेगा . बचा क्या लेगा . जब तक वह खुद बचा रहेगा, हिंदी भी बची रहेगी .
और जहां ज्ञान-गुमान खूब-खूब है, आर्थिक स्वास्थ्य समाज के चेहरे पर दमक रहा है और समृद्धि आठों पहर अठखेलियां कर रही है, वहां भाषा-साहित्य की दुर्दशा के क्या कारण हैं, जरा यह भी देखो-समझो और तब किसी नतीज़े पर पहुंचो।
प्रमोद सिंह
क्योंकि इस तथाकथिक साहित्य का अपने समाज से कोई जीवंत संवाद नहीं. यह संवाद ज़माने से टूटा व छूटा हुआ है. वह संवाद कैसे बने या उसके बनने में क्या रूकावटें हैं इसकी कोई बड़ी व्यापक चिंता हिन्दी की सार्वजनिकता में दिखती है? नहीं, चार किताब छपवाये व तीन पुरस्कार पाये साहित्यिकगण अपने-अपने लघु संसार में सुखी, कृतार्थ जीवन जीते रहते हैं! जो सुखी नहीं हैं, वे इन सवालों की चिंता में नहीं, पुरस्कार न पाने के दुख में दुखी हो रहे हैं. सपना भी समाज नहीं, आनेवाले वर्षों में पुरस्कार पाकर धन्य हो लेने की वह अकुलाहट ही है.
प्रियंकर
‘हिंदी दुर्दशा देखी न जाई’ के हताश करनेवाले हाहाकार और ‘कुछ बात है कि हिंदी मिटती नहीं हमारी’ की विलक्षण आत्ममुग्धता के दो अतिवादी शिविरों में बंटे बुद्धिजीवियों को समान संदेह से देखते, अंग्रेज़ी न जाननेवाले विशाल भारतीय समाज को भी इधर एक मिलावटी भाषा ‘हिंग्रेज़ी’ में उच्चताबोध का छायाभास होने लगा है .यह घालमेल सरसों में सत्यानासी के बीज (आर्जीमोन) की मिलावट से भी अधिक घातक है .
यथार्थ आकलन और आत्मविश्लेषण के मध्यम मार्ग की जितनी आवश्यकता आज है पहले कभी नहीं थी .जड़ें सूख रही हैं और हम पत्तों को पानी देकर प्रसन्न हैं . अंग्रेज़ी के गढ़ लंदन और न्यूयॉर्क में विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहे हैं और देश के भीतर प्राथमिक शिक्षा का माध्यम उत्तरोत्तर अंग्रेज़ी होता जा रहा है . जब तक सच्चे और ईमानदार प्रयास नहीं होंगे, हिंदी के नाम पर प्रतीकवादी कर्मकांड चलता रहेगा और उससे उपजे ताने-तिसने भी जारी रहेंगे .
प्रमोद सिंह
बड़ी मुश्किल है बेगूसराय, मुंगेर, बनारस, बरकाकाना है हिंदी की दिल्ली नहीं है. दिल्ली की हिंदी का दिनमान, हिंदुस्तान, धर्मयुग नहीं है. चालीस प्रकाशक हैं उनका धंधा है. चार सौ कवि-पत्रकार हैं उनका चंदा है. हंस का पोखर और समयांतर का लोटा है. पटना के मंच से युगपुरुष कहकर सम्मानित हुए उनका कद भी बहुतै छोटा है.
हिंदी की छपाई में पंचांग और कलेंडर हैं वर्ल्ड मैप नहीं है. वर्ल्ड मैप का ठेका है जिसके खिलाफ़ शशिधर शास्त्री ने दो मंत्रालयों को लिखा है सात लुच्चों को तीन वर्षों से समझा रहे हैं. राष्ट्रहित का प्रश्न है, बच्चो, पाप चढ़ेगा. लाजपत नगर का लुच्चा थेथर है हंसकर पेट हिलाता है. गुटका खाता हिंदी अकेडमी की गाता है. अराइव्ड फ्रॉम रांची हेडिंग फॉर मॉरीशस का लुच्चा शालीन है शास्त्री जी को चार रुपये वाली चाय पिलाकर समझाता है क्या चिट्टी-पत्री में लगे हो, मास्टर. भाग-दौड़ की नहीं अब आपकी घर बैठने की उम्र है. फालतू के झमेलों में देह और दिल जला रहे हो. आराम करो मुन्ना भाई की वीसीडी देखो. साहित्य-फाहित्य का रहने दो यहां लौंडे हैं संभालेंगे.
बेटा बेरोज़गार है और शास्त्री जी समझते हैं. मंत्रालय की सीढियों पर गिरकर प्राण गंवाना नहीं चाहते. वैसे भी पिछले दिनों से हिंदी की कम जवान बेटी की चिंता ज्यादा है. उद्वेग, उत्कंठा, आकांक्षा, साधना थी मगर अब उसका आधे से भी आधा है.
इतनी भागाभागी में किसको संस्कार की पड़ी है. शिक्षा में टुच्चई समाज में गुंडई है. पुरानी स्मृतियों के ताप की अगरबत्ती जलाकर कितनी और कब तक बदबू हटायेंगे. फिर अगरबत्ती महंगी है ज़मीन का भाव चढ़ रहा है और नई बीमारियां बढ़ रही हैं.
हिंदी की रेट लिस्ट का नया सर्कुलर आया है. नई दूकानों की लाइसेंसिंग हुई है. खुली है एक देहरादून में दूसरी दूकान बरेली में. मुन्ना भाई और मुलायम हैं हिंदी के माखनलाल और प्रशस्त राजमार्ग कहां है. सत्ता अंग्रेजी की ही नली से निकलती है. हिंदी पियराये कागज़ की नाव है संकरी नाली में बह रही है.
(पुनश्च: अंतरजाल में भी वही हाल है. सात छंद और सत्रह सेवैया है उससे बाद का बाहरी गवैया है. लोग आंगन में भंटा छत पर भतुआ फैला रहे हैं. तरकारी को बघार और घर-दुआर बुहार रहे हैं. कहते हैं इसी में सुख है. हिंदी का यही लुक है.)
ज्ञानदत्त पांडेय
हिन्दी है ही दुरुह! इसमें बकरी की लेंड़ी गिनने का मॉर्डन मेथमेटिक्स है. इसमें पंत पर कविता है. इसमें लम्बे-लम्बे खर्रों वाला नया ज्ञानोदय है. बड़े-बड़े नाम और किताबों की नेम ड्रापिंग है. पर इसमें नौकरी नहीं है!
लेकिन मेरा मानना है कि हिन्दी साहित्य के नाम पर दण्ड-बैठक लगाने वाले कहीं और लगायें तो हिन्दी रिवाइटल खिला कर तन्दुरुस्त की जा सकती है. अगर 100-200 बढ़िया वेब साइटें हिन्दी – समझ में आने वाली हिन्दी (बकरी की लेंड़ी वाली नही) – में बन जायें तो आगे बहुत से हाई-टेक जॉब हिन्दी में क्रियेट होने लगेंगे. इस हो रही जूतमपैजार के बावजूद मुझे पूरा यकीन है कि मेरी जिन्दगी में हिन्दी बाजार की भाषा (और आगे बाजार ही नौकरी देगा) बन कर उभरेगी.
नागार्जुन जी की तर्ज में कहें तो साहित्य-फाहित्य की ऐसी की तैसी.
प्रियंकर
हिंदी में सब कुछ है पर नौकरी नहीं है . इधर हिंदी में नौकरी का जुगाड़ हुआ नहीं उधर हिंदी तुरतै खजैले कुत्ते से ‘लैप डॉग’ की श्रेणी में पदोन्नत हो जाएगी . मदमाती चाल से चलता हुआ हाथी भी हो सकती है हमारी हिंदी . बाज़ार वह पारस है जिसको छूते ही हमारी हिंदी सोना हो जाएगी . साहित्य-फाहित्य से हटकर जैसे ही हिंदी बाज़ार से जुड़ेगी उसके झाड़ से सुनहरे-रूपहले खनखनाते सिक्के झड़ा करेंगे . अब यह अलग बात है कि अभी तक तो इस मुई महामंडी ने जिस भी चीज़ को छुआ उसे गुड़ से गोबर ही किया है . हमारी हिंदी क्या कु्छ आलरेडी है वह तो रघुवीर बाबू मुद्दत हुए ‘हमारी हिंदी’ कविता में बता गए हैं :
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीबी है
बहुत बोलने वाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढाते जाओ
सर पर चढाते जाओ
वह मुटाती जाये
पसीने से गन्धाती जाये घर का माल मैके पहुंचाती जाये
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो खैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आंगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिये कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फ़र्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएं पर ले जाकर फींची जाएंगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पांच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे ।
(रघुवीर सहाय,1957)
प्रमोद सिंह
आप भी गजब करते हैं, मित्र! तीसरी दुनिया के देश में जहां प्राथमिक शिक्षा व स्वास्थ्य का सवाल अभी भी गड्ढे में गिरा हुआ है, आप बुद्धिजीवी पर कीचड़ उछाल रहे हैं. खुद एक पैर एनजीओ दूसरा कंपौंडरी तीसरा गांव की ज़मीन में धंसाये हमको बुद्धिजीवीपना सीखा रहे हैं. अब जो हैं सो हैं क्या कीजियेगा. कंप्यूटर के बाजू में अगरबत्ती जलाते हैं ज़रूरत लगने पर पूंजी की प्रशस्ति गाते हैं और बुड़बकों के बीच बुद्धिजीवी कहाते हैं.
हिंदी लेखक की ही तरह हिंदी ब्लॉगर भी अपने जैनरायन पुरस्कार और शील सम्मान की छतरी के नीचे गदगद रहता है.. बुकर क्यों नहीं मिला और नोबेल पर हमारा हक़ बने ऐसा साहित्य हम क्यों नहीं लिख पा रहे हैं- जैसी चिंताओं को पास फटकने देकर अपने जीवन के चिथड़े नहीं करता.. उसे उपनगर के किसी सम्मानजन एरिया में एमआईजी टाइप एक सम्मानजनक मकान, एक आल्टो या ज़ेन और एकाध प्रेमिका की संभावना दे दीजिए, देखिए, वह कितने मुग्धभाव से एक के बाद एक दनादन कविता ग्रंथ छापे जा रहा है!
हम छोटे-छोटे सुखों में सुखी हो जाने वाले, सिर्फ़ भूगोल के स्तर पर ही, एक बड़े राष्ट्र हैं. चंद मसाला डोसा, गोवा का सैर-सपाटा, डेढ़ हज़ार के दो जूते और खुशवंत सिंह के दो जोकबुक हमारे एक वित्तीय वर्ष को चरम-परम आनंद में भरे रख सकते हैं. पुरातत्व, इतिहास, कला, स्थापत्य, हाउसिंग, जल-संकट, शहरों का भविष्य यह सब कुछ भी हमें हमारे चाहे की दुनिया नहीं लगती.. इनकी बात उठते ही लगता है, सामनेवाला बौद्धिकता पेल रहा है.. लात से ऐसी बौद्धिकता को एक ओर ठेल.. हम अपनी बंटी और बबली टाइप चिरकुट चाहनाओं की आइसक्रीम चुभलाने लगते हैं..
यह हम हैं?.. या हमारा वैचारिक-सामाजिक भूगोल है?.. ज़रा खुद से पूछिएगा, दिन में कितनी दफ़े आप इस भूगोल को हिलाने-छेड़ने की कसरत करते हैं!
छोड़िए, हटाइए ये सब.. रघुवीर सहाय की ‘सीढ़ियों पर धूप’ में से इन पंक्तियों का आनंद लीजिए. ये खास तौर पर प्रियंकर भाई के लिए हैं जो इन दिनों हमारे ज्ञानदान से उखड़े हुए हैं. तो, लीजिए, प्रियंकर भाई, अर्ज़ है:
दिन यदि चले गए वैभव के
तृष्णा के तो नहीं गए
साधन सुख के गए हमारे
रचना के तो नहीं गए.उपसंहार
प्रमोद सिंह
बात निजी तकलीफनामे से खिंचकर फैल रही है.. बाकी का झोला हम कल खोलते हैं.. आप भी ज़रा कल तक अपनी हिंदी अपने दिमाग में गुनिए.. कि इस भाषाई चिंता का कोई सामूहिक स्वर बने..
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