शेष का ४३ वां अंक (जनवरी-मार्च २००७) सामने है . मुखपृष्ठ पर हुसैन की एक सुंदर किंतु विचलित कर देने वाली पेन्टिंग है .
गोपीचंद नारंग की गु्ज़ारिश है . नामी उर्दू शायर और नक्काद बाकर मेहदी को खिराजे-अकीदत है. उर्दूदां ज्ञानचंद जैन की किताब ‘एक भाषा,दो लिखावट,दो अदब’ पर अलग-अलग पहलू प्रस्तुत करती दो समीक्षाएं हैं.
सीरिया के इस्लामी विद्वान मुस्तफ़ा अलसबाई का साक्षात्कार है. अफ़सानानिगार इकबाल मजीद से गुफ़्तगू है. मशहूर उपन्यासकार जोगेंदर पॉल के नाम लिखे देश-विदेश के विभिन्न साहित्यकारों के पत्र हैं.
डॉक्टर हसन मंज़र का सफ़रनामा और यादनामा है. स्वतंत्रता-सेनानी मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली पर लिखा फ़ारूक अर्गली का लेख है , ‘इस्लाम और फ़ुकुयामा’ पर सुरेश पंडित का और ‘हिंदी पत्रकारिता में उर्दू शब्दों के गलत इस्तेमाल’ पर फ़ज़ल इमाम मल्लिक का लेख है.
परवीन शाकिर,नासिर अहमद ‘नासिर’,अहमद सुहैल और जयंत परमार की नज़्में हैं;मिराक मिर्ज़ा,तिलकराज पारस,गुलाम मोहिउद्दीन ‘माहिर’,अताउर्रहमान ‘अता’ की गज़लें; देवेन्द्र सिंह,अनिल गंगल,शम्भु बादल आदि-आदि की कविताएं हैं; साथ में नूर मुहम्मद ‘नूर’ के दोहे हैं.
नय्यर मसूद के किस्से हैं; भवानी सिंह आदि-आदि की कहानियां हैं और कई लघु कथाएं . अंत में उर्दू-हिंदी की कई ताज़ा किताबों पर समीक्षाएं हैं. और हैं पाठकों और रचनाकारों के पत्र .
शेष यानी दो ज़बानों की एक किताब . एक तिमाही इंतिखाब .
इस समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू में जो कुछ बेहतरीन रचा जा रहा है उस तक देवनागरी के माध्यम से पहुंचने का एकमात्र रास्ता .
उर्दू में सपने देखने वाली आंखों और उर्दू में सोचने वाले मन की गहराई की थाह पाने का, हम उर्दू न जानने वाले हिंदीभाषियों का एकमात्र जरिया .
खुदा न करे कभी यह पुल टूटे . ईश्वर ऐसा दिन न दिखाए . यह एक मात्र पुल है जो बरस-दर-बरस बारहो महीने आवा-जाही के लिए खुला रहता है. सरकारी गाडियां और बसें भले ही चलती और बंद होती रहती हों .
उर्दू का सर्वश्रेष्ठ साहित्य यहां देवनागरी में सुलभ रहता है . पर ‘शेष’ उर्दू के लिए उर्दू लिपि का हामी है. उर्दू के लिए देवनागरी की वकालत करने वालों को वह उर्दू का खैरख्वाह नहीं मानता . ‘शेष’ मानता है कि लिपियां ज़बानों पर थोपी नहीं जातीं . लिपियां ज़बानों की हमज़ाद होतीं है.
हसन जमाल की बेबाकी और साफ़गोई ऐसी है कि किसी भी गलत बात को वे बर्दाश्त नहीं कर सकते . और उसे अपनी तल्ख टिप्पणियों के बाण मार कर छलनी कर देते हैं . विनम्रता ऐसी कि लगभग दो दशकों से प्रकाशित हो रही, देश की इस अनूठी पत्रिका ‘शेष’ को वे सिर्फ़ अपनी पेशकश कहते हैं .वे अपने को इसका संपादक नहीं कहते . जबकि वे हैं . और हिंदी की किसी भी महत्वपूर्ण पत्रिका के तुर्रम खां संपादक से बड़े संपादक हैं . चूंकि वे अधिकांश सामग्री इस समूचे उपमहाद्वीप से प्रकाशित होने वाली उर्दू पत्रिकाओं से लेकर और अनुवाद करवा कर सजाते हैं सो वे बड़ी विनम्रता से लिखते हैं; तर्जुमा और तर्तीब : हसन जमाल .
पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर जैसे दूरस्थ नगर में बैठे इस सामान्य आदमी का अथक परिश्रम, अद्भुत जीवट और बेलाग ईमानदारी इस पत्रिका ‘शेष’ के पन्ने-पन्ने से प्रकट होती है . उनका अपने एकल प्रयास से ‘शेष’ जैसी पत्रिका का प्रकाशन ; अपनी पीठ ठोकने के व्यसन और अखाड़ेबाज़ी में लिप्त दिल्ली-केन्द्रित संपादकों के लिए एक मिसाल है .
शेष के महत्व को सरकारी अनुदान से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं और विदेशी पैसे से फलने-फूलने वाले एन.जी.ओ.वादी उपक्रमों के बरक्स रखकर भी परखना चाहिए .
हिंदी के प्रति हसन जमाल के मन में कुछ बद्धमूल विचार हैं . बावजूद इसके कि उनके जैसे हिंदीसेवी देश में बिरले ही होंगे . हिंदी के प्रति उनकी तल्ख टिप्पणियों से कई बार मन आहत भी हुआ है . जैसे कि वे उर्दू की बुरी दशा का जिम्मेदार हिंदी को ठहराने के आदी हैं. खैर, ऐसे वे अकेले तो नहीं हैं . अब तो हिंदी इलाके की सभी भाषाओं-उप भाषाओं-बोलियों की बुरी दशा के लिए हिंदी को दोष देना फ़ैशन-सा हो गया है. या कहूं, लिंग्विस्टिक्स का एक किस्म का स्कूल चल निकला है. पर यह बात फिर कभी. अभी तो बात हसन साहब और शेष के मुतल्लिक .
तो कई बार हसन जमाल मन आहत करते हैं . पर उससे मन में उनके प्रति सम्मान भाव कभी कम नहीं हुआ . अगर उनके कुछ बद्धमूल विचार हैं या पूर्वग्रह हैं तो ऐसे कुछ पूर्वग्रह हमारे भी होंगे. तभी तो कुछ भी सोच-विचार करने के पहले ही हमारा मन दुख जाता है .
तो ऐसे हैं हसन जमाल और ऐसी है उनकी ‘शेष’ नाम की यह पत्रिका . बाकी अंदाज़ा तो सिर्फ़ पत्रिका को देख-पढ कर ही हो सकता है . पर यह बात सोलह आने पक्की है कि ‘शेष’ हिंदी की अनूठी पत्रिका है — भीड़ में अलग दिखने वाली– आपको समृद्ध करने वाली . बेहतरीन सामग्री से परिपूर्ण एक अंक बीस रुपये का और सालाना अस्सी रुपये में चार अंक .
इधर हसन जमाल साहब कुछ गलत कारणों से चर्चा में हैं . कुछ तो हसन साहब की नया ज्ञानोदय में छपी उस पत्रनुमा टिप्पणी में था . कुछ उस पत्रिका के संपादक के व्यक्तित्व में . कुछ उस टिप्पणी पर आई टिप्पणियों में .
और फिर इंटरनेट पर तो जैसे विवाद की लाश पर मुफ़्तखोर गिद्धों के झुंड ही मंडराने लगे . ऐसे गिद्ध भी आए जो सामान्यतः विवादों से दूर रहते आए हैं. कुछ गिद्ध उत्साह के अतिरेक में हसन साहब को चपत जमाने ‘विद फ़ैमिली’ आ गए . और हसन जमाल को एक पिछड़ा हुआ अहमक,कूपमंडूक,तरस खाने योग्य और न जाने क्या-क्या साबित करने के चक्कर में भाव-विभोर होकर तूतक-तूतिया हो गये . यानी हसन को हड़काने की खुशी में ऐसा झूम के नाचे कि घुंघरू टूट गए .
रवि भाई ने हसन जमाल को उनकी ‘अंतर्जालीय कूपमंडूकता’ के लिए फटकारते हुए और उनके लत्ते लेते हुए कहा कि ‘उनके तर्क बेहद हास्यास्पद,बचकाना और इंटरनेट के प्रति उनकी नासमझी और अज्ञानता को दर्शाते हैं’ . थोड़ी अतिरंजना और छोटी-सी तथ्यात्मक गलती के साथ सराय के रविकांत ने भी कहा कि, “Jamal saheb got a taste of his own medicine when he got furious responses from the readers of his magazine.”
और इधर तो साइबर-योद्धाओं की एक पूरी वाहिनी चल ही पड़ी थी एक इंटरनेट-द्रोही लेखक के आखेट के लिए. भाई लोगों ने रवि भाई के गैरज़रूरी ‘अंतर्जालीय’ शब्द को ‘डिलीट’ कर दिया और ‘कूपमंडूकता’ शब्द को ले उड़े . और फिर हसन साहब की कूपमंडूकता के इस कृत्रिम और कल्पित राग को प्रौद्योगिकी-उन्माद की ताल पर कई सुरों में गाया गया.
चूंकि इंटरनेट को खराब कहने का मामला लगभग ‘ब्लैस्फ़ैमी’ — ईशनिन्दा — जैसा मामला था, इसलिए कुछ इंटरनेट-प्रेमियों को रवि जी की यह भर्त्सना भी एकदम नाकाफ़ी और गैरज़रूरी विनय से भरी लगी . पूर्व इलैक्ट्रिकल इंजीनियर (हालांकि अभी किन्हीं नीरिजा ने उनके इंजीनियर होने पर सवालिया निशान लगा दिया है) और अब हिंदी के पी.एच.डी. मसिजीवी तो लगभग रवि जी द्वारा की गई इस विनयपूर्ण मजम्मत से बुरी तरह असंतुष्ट दिखे . बिज़ली के इंजीनियर हैं चाहते होंगे बिज़ली के झटके देकर हसन जमाल नाम के इस अपराधी का ऐसा उपचार कर दिया जाए कि फिर कभी लौटकर इंटरनेट जैसी दिव्य प्रौद्योगिकी पर ऐसी ओछी तोहमत लगाने का आपराधिक कृत्य न कर सके .
अब मनीषा जी का लेख तो ऐसा कुछ खास था नहीं जिसके पक्ष में आवाज़ उठाई जाए . यह मैं नहीं कह रहा हूं . बकलम रवि भाई उसमें हिंदी ब्लॉगों के बारे में सरसरी और उथली जानकारी थी . (इस बारे में मसिजीवी जी भी रवि जी से पूरी तरह एकमत हैं). तो हसन जमाल ने ऐसा क्या विस्फोटक कह दिया यह जान लेना बहुत ज़रूरी है .
इंटरनेट तात्कालिक उद्दीपक था. हसन साहब के दुख का असली कारण था ‘भारत का असंतुलित विकास’ जो देश के हर समझदार आदमी की ज़रूरी चिंता है . उनका मुद्दा था ‘हर विकास की पुश्त में दिखता विनाश’ . वे चाहते थे कि हम यह विचार करें कि नई तकनीक हमें क्या दे रही है और बदले में हमसे क्या कीमत वसूल कर रही है.
वे चाहते थे कि हम ज्ञान और सूचना में फ़र्क करना सीखें . वे कह रहे थे कि अनावश्यक सूचनाएं भय पैदा करती हैं और इंटरनेट सूचनाओं का जंगल है. वे कह रहे थे कि तकनीकी उपकरण मानवीय ऊष्मा का विकल्प नहीं हो सकते . वे कह रहे थे कि विकास के पहिए को नहीं रोका जा सकता और इंटरनेट का चलन बढ़ेगा,पर इसके ‘ऐडिक्शन’ से बचना ज़रूरी है . वे कह रहे थे कि किसी तकनीक की अत्यधिक व बेजा प्रशंसा करने के पहले उसके घातक परिणामों को भी खयाल में रखना चाहिए . कि तकनीकी उपभोक्ता को अपना गुलाम बना लेती है. वे कह रहे थे कि जब दूर से बिना किसी प्रत्यक्ष मेल-मुलाकात के चैटिंग होगी तो चीटिंग की गुंजाइश भी होगी.
एक बड़े-बुजुर्ग के जीवनानुभव के आधार पर वे कह रहे थे कि जो सहजता और सुविधा परम्परा में है, वह नई तकनीक में संभव नहीं दिखाई देती. वे आगाह करते हैं कि एकदिन इंटरनेट हमारा सुख-चैन,आराम व सुकून हर लेगा . और साथ ही यह भी कहते हैं : मैं जानता हूं,यह निराशावादी दृष्टिकोण है, लेकिन अंजाम आईने की तरह साफ़ नज़र आ रहा है .
विश्वास न हो तो पढ़कर देख लीजिए . यही सब तो कह रहे थे वे . (मैंने नया ज्ञानोदय के फ़रवरी अंक में पढ़ा था, पर अब तो रवि जी ने जन-सामान्य की सुविधा और हिंदी के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से इसे नेट पर भी डाल दिया है) . हसन साहब कुछ वैसी ही घरोआ बात ‘इमोशनली चार्ज्ड’ होकर कह रहे थे जैसी एक परिवार या समुदाय का बुजुर्ग कहता है समझाइस के उद्देश्य से , घर के नौजवान के भले के लिए . उसे चेताने के लिए .
यह एक पारम्परिक दृष्टिकोण है जीवन का . विकास की आधुनिक संकल्पना का एक ‘क्रिटीक’ है जिसे व्यापक संदर्भों में देखा जाना चाहिए. वैसे ही जैसे हम बहस चलाते हैं कि पानी ज्यादा ज़रूरी है या कोक . प्राथमिक शिक्षा ज्यादा ज़रूरी है या नए-नए आईआईटी . किसानों की जान बचाना ज्यादा ज़रूरी है या नए-नए एसईज़ेड बनाना. कलम ज्यादा ज़रूरी है या की-बोर्ड. एक कच्ची बस्ती के घर में शौचालय ज्यादा ज़रूरी है या इंटरनेट कनैक्शन वाला कम्प्यूटर .
कि देश के अधिकांश ग्रामीण इलाकों में जहां बिजली है भी, वह सिर्फ़ कुछ घंटे मुंह दिखा कर चली जाती है. कि लगभग अस्सी करोड़ हिंदी बोलने-बरतने वाले लोगों में कुल जमा पांच-छह सौ ब्लॉगर हैं जो इस मुगालते में दोहरे हुए जा रहे हैं कि हिंदी का भविष्य उन्हीं के कंधों पर टिका है और इंटरनेट देश में बहुत आमफ़हम है . कि कागज़-कलम और छपी हुई पुस्तकों के दिन गिने-चुने हैं.
जबकि इसके बरक्स यह तथ्य देखिए कि हिंदी पठन-पाठन के इस बुरे दौर में भी हिंदी के कुछ अखबार एक करोड़ से ज्यादा बिकते हैं . कवि-कहानीकार उदय प्रकाश टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के बिज़नेस पेज के हवाले से कह रहे हैं कि पेन की बिक्री 76 प्रतिशत बढ़ी है .
कोई प्रौद्योगिकी किसी भाषा के उत्थान में सहायक प्रतीत हो रही हो, पर भाषाभाषियों के साथ उसका रिश्ता द्वैध या संदेह का बन रहा हो या प्राथमिकता के हिसाब से उसका क्रम पीछे की ओर हो . तब क्या उसकी पड़ताल एक ज़रूरी काम नहीं है . उसके आलोचकों की शंकाओं को दूर करना हमारी जिम्मेदारी है या उन्हें अहमक ठहराकर हमारा दायित्व पूरा हो जाता है . जीतू ने ज़रूर अपनी टिप्पणी में इस ओर इशारा किया है कि हसन जमाल का ब्लॉग बनवा दिया जाए . बाकी तो उन्हें बहस के भी नाकाबिल मान रहे हैं .
बस यही ‘प्राथमिकता का प्रश्न’ था जो हसन जमाल उठा रहे थे . बदले में उन्हें क्या मिला . रुसवाई . उनकी कई दशकों की तपस्या को , उनकी लंबी साहित्य सेवा को समझे बगैर नेट पर बैठे हवाबाज़ों ने उन्हें तरस खाने लायक मान लिया .
हिंदी के हित रवि रतलामी के प्रौद्योगिकीय योगदान को मैं उतना ही मान देता हूं जितना कि ‘शेष’ के जरिए हिंदी की समृद्धि के लिए हसन जमाल साहब को . हसन साहब के प्रौद्योगिकी-विरोधी रवैये को मैं उसी तरह लेता हूं जैसे रवि भाई के व्यंजलों को . मैं मानता हूं कि अपनी ‘कोर कम्पीटेंस’ के इलाके के बाहर जाने पर आदमी के निष्पादन में वह बात नहीं रह जाती जिसके लिए वह जाना जाता है . पर इससे उसका अपने कार्य-क्षेत्र में किया गया काम कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाता . उसका व्यक्तित्व गया-गुजरा नहीं हो उठता . अतः कोई भी फ़ैसला सुनाने के पहले कम-से-कम उतनी समझदारी बरतना ज़रूरी है जितनी सर्फ़ की खरीददारी में काम आती है .
तो चाहे हसन जमाल हों या रवि रतलामी, वे हल्के ढंग से लेने के लायक नहीं हैं . अपने-अपने क्षेत्र के दो दिग्गजों की ‘कोर कम्पीटेंस’ में यदि ‘ओवरलैपिंग’ हो रही हो तो राहचलतों को बीच में कूदने या अपने भुट्टे सेंकने की बजाय कुछ सीख लेनी चाहिए .
ऐसों को तो और भी जो प्रिंट मीडिया में छपी अपनी किसी भी बुटकन-सी रिपोर्ट को लेकर मारे उत्तेजना और खुशी के लहालोट हो जाते हैं .
हसन जमाल हमारे समय के बड़े संपादक हैं . उनकी बात और उसके निहितार्थ पर समझदारी और सहानुभूति से विचार होना चाहिए , तदर्थवाद के तहत दांत चियारते हुए नहीं .
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