Archive for अप्रैल, 2007

कोलकाता का हिंदी रंगमंच-1

अप्रैल 30, 2007

   कोलकाता में  हिन्दीभाषी समुदाय बहुत लंबे समय से और बहुत बड़ी तादाद में निवास करता आया है । यहां हिन्दी नाट्य प्रस्तु्तियों का इतिहास लगभग एक शताब्दी पुराना है । इसके शुरूआती दौर में तो पारसी शैली के व्यावसायिक नाटक ही छाए रहे ।   1906 में पहली बार मुंशी भृगुनाथ वर्मा के नेतृत्व में फूलकटरा में हिन्दी नाट्य समिति  की स्थापना हुई । यह हिंदी में पहला गैरव्यावसायिक रंग प्रयास था । बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में पं. माधव शुक्ल के कोलकाता आगमन और भोलानाथ बर्मन के साथ ‘हिन्दी नाट्य  परिषद’ की स्थापना से कोलकाता के हिन्दी रंगमंच को अपेक्षित गति व प्रतिष्ठा मिली जिसका सतत विकास आज के समर्थ नाट्य आंदोलन में देखा जा सकता है ।  

 उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में पारसी थियेटर कंपनियों ने कोलकाता में पारसी शैली के नाटक प्रदर्शित करने शुरू कर दिए थे । मूनलाइट, मिनर्वा, कोरिंथियन आदि थियेटरों में व्यावसायिक दृष्टि से सफल नाटक खेले जाने लगे थे । मनोरंजन करना और पैसा कमाना इनका एकमात्र उद्देश्य था । वृहत्तर सामाजिक संदर्भों से इनका कोई गहरा सरोकार नहीं था परंतु भारी संख्या में आम जनता को रंगमंच की ओर आकर्षित कर लेना इनकी बड़ी सफलता थी । सरल उर्दू या हिन्दुस्तानी में खेले जाने वाले इन नाटकों की भाषानीति नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के ‘महाभारत’ नाटक के इस उद्धरण द्वारा समझी जा सकती है :   

  ” न खालिस उर्दू न ठेठ हिन्दी   

   जबान गोया मिली-जुली हो ।     

  अलग रहे दूध से न मिसरी,     

  डली-डली दूध में घुली हो ।।”  

 किन्तु पारसी नाटकों की प्रवृत्ति बाजारू और रुचि हल्की थी । अभिनय कला में भी एक तरह का उथलापन था । अतिनाटकीयता के साथ आकस्मिकता और चमत्कार का संयोग उसे और भी भोंडा बनाता था । किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह हमारी रंगयात्रा का प्रारंभिक चरण था और व्यावसायिकता के दबाव के बावजूद पारसी शैली के कई नाटक तत्कालीन राष्ट्रीय भावनाओं और आकांक्षाओं को निरूपित करने का खतरा मोल ले रहे थे । हिन्दी रंगमंच की विकास यात्रा में पारसी नाटकों का महत्वपूर्ण स्थान है । बहुत लंबे समय तक हिन्दी का गैरव्यावसायिक रंगमंच भी इनकी शैली से खासा प्रभावित रहा । 1930 तक पारसी शैली का थियेटर जिंदा रहा। सिनेमा के प्रचलन के बाद स्थाई रूप से इनका पर्दा गिर गया ।

                                                                   क्रमशः ….. 

                                                                                                                                                                                                                                                                                                               क्रमशः …….. 

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आतंक और आज़ादी

अप्रैल 26, 2007

 आतंकवाद घृणा की संस्कृति का चरम बिन्दु है । आतंकवादी समूहों की कार्रवाइयां वस्तुनिष्ठ वास्तविकता की बजाय आत्मगत व्याख्या पर आधारित होती हैं । चूंकि एक आतंकवादी और मुक्तियोद्धा के बीच की विभाजक रेखा बहुत क्षीण है, अत: अधिकांश आतंकवादी अपने को योद्धा, मुक्तिदाता और शहीद की श्रेणी में रखते हैं । धार्मिक कट्टरवादी अपने को व्यक्ति न मानकर धर्म का प्रतीक मान बैठते हैं ।
 
 आतंकवाद का एक प्रकार राज्य प्रायोजित आतंकवाद भी है जहां राज्य की निरंकुश और दमनकारी भूमिका    का नृशंस    रूप    हमारे सामने     आता है । राजसत्ता के इस्तेमाल से विरोध के किसी भी स्वर को हिंसक तरीके से कुचल देना इसका अंतिम लक्ष्य होता है ।  ११ सितंबर की घटना के बाद अमेरिकी सरकार द्वारा अफगानिस्तान और ईराक में की गई कार्रवाई राज्य प्रायोजित आतंकवाद का ही नमूना है ।
 आतंकवाद का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि आतंकवादी गतिविधियों से निपटने और राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के नाम पर राज्य नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता को सीमित अथवा स्थगित कर देता है । लोकतंत्र सिमटता जाता है और नागरिक अधिकारों के हनन की प्रक्रिया तेज हो जाती है । ग्यारह सितंबर की घटना के लगभग एक माह पश्चात अमेरिका द्वारा पारित ‘यूएसए पैट्रियट एक्ट’  राज्य की निगरानी शक्तियों के अभूतपूर्व विस्तार और नागरिक स्वतंत्रता के अनावश्यक और अनपेक्षित संक्षिप्तीकरण का ही एक उदाहरण है । इसमें जैवनिगरानी, चेहरे की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर तथा भाषा संसाधन प्रौद्योगिकी आदि नई पद्धतियों को शामिल किया गया है । ‘रेसियल प्रोफाइलिंग’ के जरिये न केवल विभेद को जन्म दिया रहा है बल्कि इस कदम ने सभी आप्रवासियों और अल्पसंख्यकों को बेवजह संदेह के घेरे में ला दिया है । निरपराध आप्रवासियों पर हमले की वारदातें इसी ‘नृजातीय प्रोफाइलिंग’ का ही नतीजा हैं ।

 मनुष्य की मुक्ति की संकल्पना में मस्तिष्क और शरीर दोनों की आजादी शामिल है । मुक्ति का अर्थ है शारीरिक और मानसिक बंधनों/प्रतिबंधों से आजादी । अभिव्यक्ति की आजादी, अवसर की आजादी,आराधना की आजादी और भय से आजादी; मुक्ति के इसी मूल मंत्र का प्रकटीकरण हैं । आज आदमी के आत्म सम्मान और सहज मानवीय गरिमा की रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा और नहीं है । किंतु आतंकवादी तथा ‘आतंक के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय गठजोड़’ के नेता दोनों ही आम नागरिक के जनतांत्रिक अधिकारों को रौंद रहे हैं । एक ओर वे अधिक सभ्य, उदारचेता और आधुनिक होने का ढोंग रच रहे हैं, दूसरी ओर उनकी हिंसक और बर्बर प्रवृत्तियों का विस्फोट कुछ और ही सच्चाई बयान कर रहा है । ऐसे में लोकतंत्र का भविष्य मनुष्य के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा पर ही निर्भर है । किंतु हमें याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र मुक्ति का पर्याय नहीं, मुक्ति की ओर प्रस्थान बिंदु है। इसके लिए राज्य को एक न्यायपूर्ण व्यवस्था की शर्त पर खरा उतरना होगा तथा नागरिकों को अपने व्यक्तिगत सद्गुणों, नैतिक अनुशासन और सतत जागरूकता के जरिये किसी भी कीमत पर अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी ।

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विवाद की अविनाशप्रियता

अप्रैल 20, 2007

कितनी अज़ीब बात है . मुझे लिखना चाहिए था ‘इन्डस्क्राइब’ पर जो बरसों से उर्दू साहित्य के बेहतरीन नगीने अपने ब्लॉग पर परोस रहे हैं,वह भी बिना किसी शोर-शराबे और टिप्पणी की प्रत्याशा के.  लिखना चाहिए था ‘अरुणिमा’ पर जो अभी हाल ही में छंद की पारम्परिक छटा के साथ चिट्ठा जगत में आईं या आए हैं .

लिखना चाहिए था रवि रतलामी या देबाशीष  पर जिनका भाषा और साहित्य से लगाव  तकनीकी ज्ञान से संयुक्त होकर नए कीर्तिमान रच रहा है . लिखना चाहिए था सुनील दीपक या अनूप भार्गव या जीतू या पंकज नरुला या उड़नतश्तरी या अतुल अरोड़ा या विनय पर जो परदेश में रहते हुए भी अपनी भाषा में लिखने की ललक बचाए और बनाए हुए हैं .

लिखना चाहिए था हिंदी और हिंदी भाषा-समुच्चय की बोलियों के फ़्लेवर से — उसके रूप-रस-गंध से — रची-बसी भाषा का अद्भुत आत्मीय और खिलंदड़ा गद्य रचने के लिए अनूप शुक्ला और प्रियरंजन झा पर . लिखना चाहिए था समसामयिक समस्याओं और राजनैतिक परिदृष्य पर पैनी नज़र रखते और सार्थक हस्तक्षेप करते अफ़लातून या नीरज दीवान या सृजनशिल्पी पर .

लिखना चाहिए था ब्लॉग जगत में बहु-अनुशासनिक अध्ययन का तेवर ‘इंजेक्ट’ करने वाले मसिजीवी पर या उस अद्भुत व्यंग्यकार शुएब पर जिसकी खुदा सीरीज़ की लोकप्रियता खुद अपनी सफ़लता की कहानी कहती है. लिखना चाहिए विविध विषयों पर समान सिद्धहस्तता से कलम चलाने वाले उन्मुक्त,मनीष, रमन कौल और जगदीश भाटिया पर . लिखना चाहिए था श्रीश और अमित जैसे प्रौद्योगिकीवीरों पर जो अपनी तकनीकी-दक्षता का इस्तेमाल हिंदी के हित कर रहे हैं . रामचंद्र मिश्र और प्रतीक पांडेय जैसे सुदर्शन युवकों पर जो हिंदी चिट्ठा संसार की जीवंत उपस्थिति हैं.

 लिखना चाहिए था उस नए आए दस्ते पर जिसके प्रमोद सिंह,अभय तिवारी और रवीश जैसे सदस्यों की वजह से  हिंदी चिट्ठाकारी में एक नई त्वरा — एक नया पुनर्बलन — दिखाई दे रहा है. लिखना चाहिए था घुघुती बासुती,प्रत्यक्षा,रत्ना,अन्तर्मन,रचना और नीलिमा जैसे स्वरों पर जो दो मोर्चों पर लडते हुए भी इस हिंदी चिट्ठा संसार को नई भंगिमा   दे रहे हैं . 

लिखना चाहिए था   अपने जैसे अनामों यानी धुरविरोधी, अनामदास, काकेश और ब्रह्मराक्षस पर जो अनाम रहते हुए भी कई नामवालों से बेहतर विमर्श कर रहे हैं. लिखना चाहिए लक्ष्मी गुप्त या ज्ञानदत्त पांडेय जैसे वरिष्ठों के बारे में जिनका इस आभासी जगत में हस्तक्षेप किसी न किसी रूप में सहज ज्ञान का कोई न कोई सूत्र अवश्य देता है गुनने के लिए.  इस नितांत कविता विरोधी समय में, कविता जैसी विधा को समर्पित मोहन राणा,प्रियंकर,बेजी,रजनी भार्गव,अभिनव,मान्या, योगेश समदर्शी, शैलेश भारतवासी, गिरिराजजोशी, अनुपमा, सुनीता और रन्जू पर भी लिखना चाहता हूं .

यहां तक कि मैं सॉफ़्ट-हिंदुत्व के हामी समझे जाने वाले संजय-पंकज बेंगानी,शशि सिंह,अमिताभ त्रिपाठी,सागर,प्रमेन्द्र और कमल पर भी लिखना चाहता हूं क्योंकि अपने भिन्न दृष्टिकोण के बावजूद अभी तक के अपने चिट्ठा जगत के आचरण में उन्होंने ऐसा कोई कारण नहीं दिया है जिसके चलते उन्हें अलग छेक दिया जाए. हां! उनकी कई बातों पर जोरदार बहस-मुबाहिसे और विरोध ज़रूर हुए हैं. खासकर परिचर्चा में बेंगानी बंधुओं से अफ़लातून और प्रियंकर की तीखी नोंक-झोंक.

भवानी भाई की भाषा में थोड़ी-बहुत तोड़-मरोड़ के साथ कहा जाए तो उसके बाद भी हम यहां नारद पर साथ रह रहे हैं क्योंकि हमें साथ रहने लायक तत्व दिख रहे हैं.

 नारद वैसा ही है,जैसा हमारा भारत है. जिसमें मतभिन्नताएं हैं, मतभेद हैं. पर मनभेद न हो इसके प्रयास होते रहे हैं और सफलता से होते रहे हैं. अपने फ़ुरसतिया जी   तो पैदाइशी ‘नेगोशिएटर’  और   नारद के अग्निशामक दस्ते के मुखिया हैं. ज्ञानरंजन की एक कहानी का शीर्षक उधार लूं तो कह सकता हूं कि उनका प्रभाव ‘फ़ेंस के इधर और उधर’ दोनों तरफ़ बराबर चलता है. सो अन्ततः शांति कायम हो जाती है. सब कुछ सामान्य और पहले जैसा हो जाता है. वैसे ही जैसे अच्छी कुश्ती के बाद दो अच्छे पहलवान गले मिलते हैं. 

 पर इस बार फ़ुरसतिया की शांति सेना पहली बार नाकामयाब दिखती है. वे हारे-थके से दिखते हैं. पर उन्हें वैसा देखना दुखद है. उन्हें वैसा नहीं दिखना चाहिए. बस यह पोस्ट इसी उद्देश्य से है .  अविनाश तो बहाना है .

अविनाश के लेखन में  शुरु से ही एक हिंसक और युयुत्सु भाव दिखाई देता रहा है. उनके लेखन की प्रकृति से यह तथ्य भी सत्यापित होता है कि जो सबसे कम रचनात्मक होता है वह सबसे ज्यादा विवादप्रिय होता है . वे कुछ अच्छे और कुछ अपने खुद के जैसे साथियों के बल पर मोहल्ला चला रहे हैं . चलाएं . कुछ लोगों का मत है कि उनका कोई ‘हिडन एजेन्डा’ है. वह क्या है इसमें अपनी कोई दिलचस्पी तब तक नहीं है जब तक यह साबित न हो जाए कि ऐसा कुछ है. पर कुछ तथ्य तो स्पष्ट दिखते हैं जैसे कि यह कि वे अल्पसंख्यक,दलित और स्त्री विमर्श को अपनी बपौती मानते हैं. खूब मानें अपने को क्या तकलीफ़ है. दिक्कत यह है कि जैसे ही कोई सृजनशिल्पी या संजय बेंगानी या कोई और इस या इन विषयों पर लिखता है. उन्हें लगता है उनके नीचे की ज़मीन खिसक रही है. वे घर से बेघर हो रहे हैं. एक असुरक्षाबोध व्यापने लगता है. सो कई बार युयुत्सा भीतर के कायरपन को छिपाने की एक तरकीब भी होती है. धर्मनिरपेक्षता बहुत महान मूल्य है. बहुत ज़रूरी भी . पर धर्मनिरपेक्षता मूर्खता और फ़ूहड़पन को धो देने वाला साबुन नहीं है. धर्मनिरपेक्षता तर्कशून्यता और ज़ाहिली को ढंकने वाला मुखौटा नहीं है.

एक और लक्षण भी मोहल्ला में साफ़-साफ़ दिखाई देता है , वह है बड़े सम्पादकों जैसे हरिवंश,राजेन्द्र यादव और ओम थानवी की महीन चापलूसी का .  करें भाई! खूब करें अपने को क्या है. प्रतीतात्मक और प्रतीकात्मक आदर्शवाद की यही अधोगति होती है. अरे अगला अपना भविष्य सुरक्षित करने के जतन में लगा है सो लगा रहे, नारद का इससे क्या आता-जाता है.

 दिक्कत की वजह और है, और चिंता का विषय भी और .  मोहल्ला की वजह से और सम्भवतः मोहल्ला की प्रतिक्रिया में  भी जिन विषाक्त बीजों का प्रकीर्णन हुआ था उसकी फ़सल तैयार खड़ी है. यह ज़हरीली फ़सल है. ज़हर ही फैलाएगी. समूचा माहौल ज़हरीला कर देगी.  इन टिप्पणीकारों के  नाम ऐसे हैं जिन्हें देने में  भी मुझे शर्मिंदगी का बोध हो रहा है. पर देने तो होंगे ही. ये सब इसी अप्रैल माह में पंजीकृत हुए हैं. इनके नाम हैं : लोला_संत,हस्तमैथुन,है-तो-है,लिंग-भेदी-अस्त्र, इस्लामिक_लेस्बियन आदि-आदि. ज़ाहिर है इनकी टिप्पणियां भी इनके नाम जैसी ही होंगी.

अनाम रहने की क्या  यही परिणति है ? इस चेन-रिएक्शन का उत्तर- दायी कौन है ? इस घृणा की पैदावार का क्या किया जाए ? इसका उत्तरदायी यदि मोहल्ला है तो उसका क्या उपचार होना चाहिए. किसी भी ब्लौग को नारद पर बैन करना इसका सबसे आसान उपाय दिखता है. पर मैं स्वयं उनमें से एक हूं जो सिद्धांततः प्रतिबंध के खिलाफ़ हैं. तब क्या किया जाए ?

पर मैं नारद के अपने अनन्य अग्निशामक और शांतिकामी फ़ुरसतिया को हताश और निराश और उदासीन नहीं देखना चाहता. हमें क्या करना चाहिए ? आप इस बारे में क्या सोचते हैं ? ज़रूर-ज़रूर लिखिएगा . आपके उत्तर में मेरी रुचि होगी .

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धर्म,आतंक और समाज

अप्रैल 19, 2007

धर्म के नाम पर लड़े गए युद्धों के विपरीत धर्म-आधारित आतंकवाद अपेक्षाकृत नई परिघटना है । इसे आतंकवादियों की भर्ती के प्रतिमानों में आए बदलाव और आतंकवादी समूहों की मनोवैज्ञानिक और समाज- शास्त्रीय गतिकी में दिख रहे नए रुझानों से समझा जा सकता है। यह 1970 की शुरुआत   में   सक्रिय    पारम्परिक आतंकवादी   समूहों  तथा व्यक्तियों  से    भिन्न प्रकृति का   आतंकवाद है    जिसके पीछे    धार्मिक कट्टरवाद एवं सामूहिक विनाश की भाषा बोलने वाले नए धार्मिक संगठनों तथा भूमंडलीकरण के चलते धर्म और बाजार के नए गठजोड़ की ताकत है । धर्म इस समय बाजार की शक्तियों से प्रभावित और परिचालित है । अमेरिकी साम्राज्यवाद तथा उसके सैनिक और आर्थिक आतंकवाद ने न केवल इस धार्मिक आतंकवाद को अपेक्षित ईंधन उपलब्ध करवाया है वरन् आतंकवादी समूहों को काफी हद तक औचित्य साधन के कारण भी उपलब्ध करवा दिए हैं ।  

आतंकवादी हमले अब अत्यंत संगठित, सुनियोजित और उच्च प्रौद्योगिकी पर आधारित हैं । उनकी प्रहार-दक्षता और मारक-क्षमता की परिशुद्धता का स्तर विस्मयकारी है । मनोवैज्ञानिकों द्वारा वर्णित आतंकवादियों के पारंपरिक मनोवैज्ञानिक प्रकार ( राष्ट्रवादी-अलगाववादी, धार्मिक कट्टरवादी, नव-धार्मिक तथा सामाजिक क्रांतिकारी आदि ) अब आतंकवाद के अध्ययन के लिए बहुत उपयोगी नहीं रह गए हैं । आतंकवादी समूहों में जैववैज्ञानिक, डॉक्टर, रसायनवैज्ञानिक, कम्प्यूटर विशेषज्ञ, भौतिकीविद्, संचार अभियंता आदि उच्च शिक्षित और व्यावसायिक दक्षता सम्पन्न व्यक्तियों की सक्रियता बहुत परेशान करनेवाला तथ्य है ।

 आराम का जीवन जी सकने की क्षमता रखने वाले इतने उच्च शिक्षित, सम्पन्न और सफल व्यक्ति आतंकवादी कैसे बन जाते हैं ? क्या आतंकवदियों में कोई लाक्षणिक समानता होती है ? क्या आतंकवादियों का व्यक्तित्व कुछ विशेष तरह का होता है ? दस्तोवस्की की भाषा में कहें तो — ” बुरा काम करनेवाले की भर्त्सना से आसान कुछ भी नहीं है और उसको समझने से मुश्किल कुछ भी नहीं है।” आतंकवाद पर किए गए तुलनात्मक अध्ययन किसी विशिष्ट आतंकवादी मस्तिष्क की ओर संकेत नहीं करते हैं और न ही इन्हें किसी विशेष नैदानिक श्रेणी में रखा जा सकता है । आतंकवादी संगठनों में नौजवान आतंकवादियों की भारी संख्या एक और खतरनाक लक्षण है । धार्मिक और विचारधारात्मक वाग्मिता से इन युवाओं का मानसिक प्रक्षालन कर इन्हें शहीदी बाना पहना दिया जाता है ।

 पिछले कुछ दशकों में भूमंडलीकरण के नाम पर अन्यायपूर्ण विश्व- व्यवस्था के अंधपोषण के चलते आतंकवाद की घटनाओं में वृद्धि हुई है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की आक्रामक विपणन शैली ने समाज को बाजार और नागरिक को उपभोक्ता में बदल दिया है । विकासशील और अविकसित देशों में   समाजीकरण की सहज प्रक्रिया    पटरी से उतर गई    है । समाज से उपेक्षित और बहिष्कृत व्यक्ति या तो साधू हो सकता है या आतंकवादी । आतंकवादी समूहों को ऐसे ही सुभेद्य शिकार चाहिए । इन्हें अपने दल में शामिल करने और अपने ढंग से इनका समाजीकरण करने के उपरांत इनका इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के लिए किया जाता है ।

 

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धर्म का धर्मसंकट

अप्रैल 11, 2007

धर्म का संबंध मनुष्य के आंतरिक विश्वास और उसके बाह्य नैतिक आचरण — सदाचार —  से ठहरता है । धर्म की किसी सर्वमान्य परिभाषा पर एकमत होना मुश्किल काम है । तथापि यदि विभिन्न धर्मों के मूल सिद्धांतों की विवेचना करें तो धर्म का अर्थ उच्चतर मानव मूल्यों को धारण करना ठहरता है जिसे तुलसी ने बहुत सरल और सार्थक भाषा में परिभाषित किया है :

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।
 परपीड़ा सम    नहिं    अधमाई ।।”

 यदि धर्म का तत्व इतना सरल और सहज परिभाषेय होता तो महाभारत में शरशैया पर लेटे भीष्म को ‘धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां’ (धर्म का तत्व अत्यंत गूढ़ है ) कहने की आवश्यकता ही क्यों होती । धर्मग्रन्थ धर्म की एकांगी और विरोधाभासी परिभाषाओं से पटे पड़े हैं । कहीं अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म माना गया तो कहीं अच्छे आचरण को । कहीं-कहीं तो इसे धार्मिक कर्मकाण्ड तक ही सीमित कर दिया गया है । ऐसी स्थिति में धर्म तर्क पर मिथक की जीत का परचम थामे दिखाई दे तो आश्चर्य कैसा ।

 धर्म और नैतिकता के मध्य सुनिश्चित संबंध है । विवाद मात्र इस बात पर हो सकता है  कि आज नैतिक मूल्यों में आई गिरावट जीवन में धर्म के महत्व में आई कमी की वजह से है अथवा यह व्यक्तिगत या राजनैतिक लाभ के लिए धर्म के इस्तेमाल से उपजा नैतिक मूल्यों और मानकों के सर्वतोमुखी पतन का एक बिम्ब है ।

 अपने नए संस्करण में धर्म संस्कृति में नवाचार और रचनात्मकता का विरोधी तो बन ही गया है , यह सभ्यताओं को वर्गीकृत करने और उन्हें एक-दूसरे का शत्रु बनाने का आधार भी बन गया है । संकीर्ण अतिवादी साम्प्रदायिक संगठनों ने इसे अपने ही साथी मनुष्यों के खिलाफ क्रूरता, हिंसा और आतंक को सही ठहराने का जरिया बना दिया है । शाश्वतता और अपरिवर्तनीयता को धर्म का मूल आधार मान कर कठमुल्ले नियतिवादियों ने धर्म के भीतर की विवेकवादी परम्परा का गला घोंटकर धर्म को रूढिवाद की ऐसी अंधी सुरंग में ढकेल दिया है, जहां सिर्फ अज्ञान का अंधेरा है और मौत की ठंडक ।

 ऐसे में महात्मा गांधी की देवदूत सरीखी भविष्यवाणी का स्मरण प्रासंगिक होगा  : 

 ” भावी समाज की नवरचना में जो धर्म संकुचित रहेगा और बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा, वह टिक नहीं सकेगा क्योंकि उस नव निर्माण में प्रत्येक वस्तु को नए ढंग से आंका जाएगा ।”

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