कितनी अज़ीब बात है . मुझे लिखना चाहिए था ‘इन्डस्क्राइब’ पर जो बरसों से उर्दू साहित्य के बेहतरीन नगीने अपने ब्लॉग पर परोस रहे हैं,वह भी बिना किसी शोर-शराबे और टिप्पणी की प्रत्याशा के. लिखना चाहिए था ‘अरुणिमा’ पर जो अभी हाल ही में छंद की पारम्परिक छटा के साथ चिट्ठा जगत में आईं या आए हैं .
लिखना चाहिए था रवि रतलामी या देबाशीष पर जिनका भाषा और साहित्य से लगाव तकनीकी ज्ञान से संयुक्त होकर नए कीर्तिमान रच रहा है . लिखना चाहिए था सुनील दीपक या अनूप भार्गव या जीतू या पंकज नरुला या उड़नतश्तरी या अतुल अरोड़ा या विनय पर जो परदेश में रहते हुए भी अपनी भाषा में लिखने की ललक बचाए और बनाए हुए हैं .
लिखना चाहिए था हिंदी और हिंदी भाषा-समुच्चय की बोलियों के फ़्लेवर से — उसके रूप-रस-गंध से — रची-बसी भाषा का अद्भुत आत्मीय और खिलंदड़ा गद्य रचने के लिए अनूप शुक्ला और प्रियरंजन झा पर . लिखना चाहिए था समसामयिक समस्याओं और राजनैतिक परिदृष्य पर पैनी नज़र रखते और सार्थक हस्तक्षेप करते अफ़लातून या नीरज दीवान या सृजनशिल्पी पर .
लिखना चाहिए था ब्लॉग जगत में बहु-अनुशासनिक अध्ययन का तेवर ‘इंजेक्ट’ करने वाले मसिजीवी पर या उस अद्भुत व्यंग्यकार शुएब पर जिसकी खुदा सीरीज़ की लोकप्रियता खुद अपनी सफ़लता की कहानी कहती है. लिखना चाहिए विविध विषयों पर समान सिद्धहस्तता से कलम चलाने वाले उन्मुक्त,मनीष, रमन कौल और जगदीश भाटिया पर . लिखना चाहिए था श्रीश और अमित जैसे प्रौद्योगिकीवीरों पर जो अपनी तकनीकी-दक्षता का इस्तेमाल हिंदी के हित कर रहे हैं . रामचंद्र मिश्र और प्रतीक पांडेय जैसे सुदर्शन युवकों पर जो हिंदी चिट्ठा संसार की जीवंत उपस्थिति हैं.
लिखना चाहिए था उस नए आए दस्ते पर जिसके प्रमोद सिंह,अभय तिवारी और रवीश जैसे सदस्यों की वजह से हिंदी चिट्ठाकारी में एक नई त्वरा — एक नया पुनर्बलन — दिखाई दे रहा है. लिखना चाहिए था घुघुती बासुती,प्रत्यक्षा,रत्ना,अन्तर्मन,रचना और नीलिमा जैसे स्वरों पर जो दो मोर्चों पर लडते हुए भी इस हिंदी चिट्ठा संसार को नई भंगिमा दे रहे हैं .
लिखना चाहिए था अपने जैसे अनामों यानी धुरविरोधी, अनामदास, काकेश और ब्रह्मराक्षस पर जो अनाम रहते हुए भी कई नामवालों से बेहतर विमर्श कर रहे हैं. लिखना चाहिए लक्ष्मी गुप्त या ज्ञानदत्त पांडेय जैसे वरिष्ठों के बारे में जिनका इस आभासी जगत में हस्तक्षेप किसी न किसी रूप में सहज ज्ञान का कोई न कोई सूत्र अवश्य देता है गुनने के लिए. इस नितांत कविता विरोधी समय में, कविता जैसी विधा को समर्पित मोहन राणा,प्रियंकर,बेजी,रजनी भार्गव,अभिनव,मान्या, योगेश समदर्शी, शैलेश भारतवासी, गिरिराजजोशी, अनुपमा, सुनीता और रन्जू पर भी लिखना चाहता हूं .
यहां तक कि मैं सॉफ़्ट-हिंदुत्व के हामी समझे जाने वाले संजय-पंकज बेंगानी,शशि सिंह,अमिताभ त्रिपाठी,सागर,प्रमेन्द्र और कमल पर भी लिखना चाहता हूं क्योंकि अपने भिन्न दृष्टिकोण के बावजूद अभी तक के अपने चिट्ठा जगत के आचरण में उन्होंने ऐसा कोई कारण नहीं दिया है जिसके चलते उन्हें अलग छेक दिया जाए. हां! उनकी कई बातों पर जोरदार बहस-मुबाहिसे और विरोध ज़रूर हुए हैं. खासकर परिचर्चा में बेंगानी बंधुओं से अफ़लातून और प्रियंकर की तीखी नोंक-झोंक.
भवानी भाई की भाषा में थोड़ी-बहुत तोड़-मरोड़ के साथ कहा जाए तो उसके बाद भी हम यहां नारद पर साथ रह रहे हैं क्योंकि हमें साथ रहने लायक तत्व दिख रहे हैं.
नारद वैसा ही है,जैसा हमारा भारत है. जिसमें मतभिन्नताएं हैं, मतभेद हैं. पर मनभेद न हो इसके प्रयास होते रहे हैं और सफलता से होते रहे हैं. अपने फ़ुरसतिया जी तो पैदाइशी ‘नेगोशिएटर’ और नारद के अग्निशामक दस्ते के मुखिया हैं. ज्ञानरंजन की एक कहानी का शीर्षक उधार लूं तो कह सकता हूं कि उनका प्रभाव ‘फ़ेंस के इधर और उधर’ दोनों तरफ़ बराबर चलता है. सो अन्ततः शांति कायम हो जाती है. सब कुछ सामान्य और पहले जैसा हो जाता है. वैसे ही जैसे अच्छी कुश्ती के बाद दो अच्छे पहलवान गले मिलते हैं.
पर इस बार फ़ुरसतिया की शांति सेना पहली बार नाकामयाब दिखती है. वे हारे-थके से दिखते हैं. पर उन्हें वैसा देखना दुखद है. उन्हें वैसा नहीं दिखना चाहिए. बस यह पोस्ट इसी उद्देश्य से है . अविनाश तो बहाना है .
अविनाश के लेखन में शुरु से ही एक हिंसक और युयुत्सु भाव दिखाई देता रहा है. उनके लेखन की प्रकृति से यह तथ्य भी सत्यापित होता है कि जो सबसे कम रचनात्मक होता है वह सबसे ज्यादा विवादप्रिय होता है . वे कुछ अच्छे और कुछ अपने खुद के जैसे साथियों के बल पर मोहल्ला चला रहे हैं . चलाएं . कुछ लोगों का मत है कि उनका कोई ‘हिडन एजेन्डा’ है. वह क्या है इसमें अपनी कोई दिलचस्पी तब तक नहीं है जब तक यह साबित न हो जाए कि ऐसा कुछ है. पर कुछ तथ्य तो स्पष्ट दिखते हैं जैसे कि यह कि वे अल्पसंख्यक,दलित और स्त्री विमर्श को अपनी बपौती मानते हैं. खूब मानें अपने को क्या तकलीफ़ है. दिक्कत यह है कि जैसे ही कोई सृजनशिल्पी या संजय बेंगानी या कोई और इस या इन विषयों पर लिखता है. उन्हें लगता है उनके नीचे की ज़मीन खिसक रही है. वे घर से बेघर हो रहे हैं. एक असुरक्षाबोध व्यापने लगता है. सो कई बार युयुत्सा भीतर के कायरपन को छिपाने की एक तरकीब भी होती है. धर्मनिरपेक्षता बहुत महान मूल्य है. बहुत ज़रूरी भी . पर धर्मनिरपेक्षता मूर्खता और फ़ूहड़पन को धो देने वाला साबुन नहीं है. धर्मनिरपेक्षता तर्कशून्यता और ज़ाहिली को ढंकने वाला मुखौटा नहीं है.
एक और लक्षण भी मोहल्ला में साफ़-साफ़ दिखाई देता है , वह है बड़े सम्पादकों जैसे हरिवंश,राजेन्द्र यादव और ओम थानवी की महीन चापलूसी का . करें भाई! खूब करें अपने को क्या है. प्रतीतात्मक और प्रतीकात्मक आदर्शवाद की यही अधोगति होती है. अरे अगला अपना भविष्य सुरक्षित करने के जतन में लगा है सो लगा रहे, नारद का इससे क्या आता-जाता है.
दिक्कत की वजह और है, और चिंता का विषय भी और . मोहल्ला की वजह से और सम्भवतः मोहल्ला की प्रतिक्रिया में भी जिन विषाक्त बीजों का प्रकीर्णन हुआ था उसकी फ़सल तैयार खड़ी है. यह ज़हरीली फ़सल है. ज़हर ही फैलाएगी. समूचा माहौल ज़हरीला कर देगी. इन टिप्पणीकारों के नाम ऐसे हैं जिन्हें देने में भी मुझे शर्मिंदगी का बोध हो रहा है. पर देने तो होंगे ही. ये सब इसी अप्रैल माह में पंजीकृत हुए हैं. इनके नाम हैं : लोला_संत,हस्तमैथुन,है-तो-है,लिंग-भेदी-अस्त्र, इस्लामिक_लेस्बियन आदि-आदि. ज़ाहिर है इनकी टिप्पणियां भी इनके नाम जैसी ही होंगी.
अनाम रहने की क्या यही परिणति है ? इस चेन-रिएक्शन का उत्तर- दायी कौन है ? इस घृणा की पैदावार का क्या किया जाए ? इसका उत्तरदायी यदि मोहल्ला है तो उसका क्या उपचार होना चाहिए. किसी भी ब्लौग को नारद पर बैन करना इसका सबसे आसान उपाय दिखता है. पर मैं स्वयं उनमें से एक हूं जो सिद्धांततः प्रतिबंध के खिलाफ़ हैं. तब क्या किया जाए ?
पर मैं नारद के अपने अनन्य अग्निशामक और शांतिकामी फ़ुरसतिया को हताश और निराश और उदासीन नहीं देखना चाहता. हमें क्या करना चाहिए ? आप इस बारे में क्या सोचते हैं ? ज़रूर-ज़रूर लिखिएगा . आपके उत्तर में मेरी रुचि होगी .
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